गुरुवार, 9 जुलाई 2015

॥ कनकधारा स्तोत्रम् ॥
KanakDhara Stotram


 ॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती,  भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।।
अङ्गीकृताखिल विभूतिरपाङ्गलीला, माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ।। 1 ।।

जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो दृष्टि श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कृपादृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।। - 0.51


मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।
मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥२॥

जैसे भ्रमरी कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टिमुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।।2।। - 1.13


विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥३॥

 
जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, उन मुरारी श्रीहरि को भी आनंदित करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।।3।। - 1.40

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥


शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।। - 2.02


बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥५॥


जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कृपादृष्टि मेरा कल्याण करें।।5।।

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥६॥


जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्याम वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण करें ।।6।
 

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥७॥

समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मुझ पर भी पड़े।।7।।


दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा अस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥८॥


भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।। -3.58


इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥९॥

विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।। - 4.25


गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०॥

जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।। -4.49


श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र​यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥११॥


हे देवी । शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।। - 5.10


नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥१२॥


कमल के समान कमला देवी को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सहोदरी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। ।।12।। - 5.26


नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥१३॥


कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी ! आप सम्पतिव सम्पुर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हो, , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा हर लेती होमुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।13।। - 5.44


नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥१४॥

जिनकी कृपा दृष्टि के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।14।। -6.06


नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥१५॥

हे विष्णु प्रिये! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।। -6.21


स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥१८॥


जो लोग इस प्रकार प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस लोकमें महान गुणवान और अत्यंत भाग्यवान. होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।। - 6.40






सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय नन्दनानि, साम्राज्य दानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिता हरणोद्यतानि, मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।। 


यत्कटाक्ष समुपासना विधिः, सेवकस्य सकलार्थ सम्पदः ।
सन्तनोति वचनाङ्ग मानसैस्त्वां, मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ।। 


सरसिजनिलये सरोजहस्ते, धवलतमांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे, त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीदमह्यम् ।। 


दिग्घस्तिभिः कनक कुम्भमुखावसृष्ट, स्वर्वाहिनी विमलचारुजलाप्लुताङ्गीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष, लोकधिनाथ गृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।। 


कमले कमलाक्ष वल्लभे त्वं, करुणापूर तरङ्गितैरपाङ्गैः ।
अवलोकय मामकिञ्चनानां, प्रथमं पात्रमकृतिमं दयायाः ।। 


॥श्रीमदाध्यशङ्कराचार्यविरचितं श्री कनकधारा स्तोत्रम् समाप्तम्॥

बुधवार, 8 जुलाई 2015

॥ श्री सूर्यमण्डलाष्टकम् ॥ Surya MandalaAshtakam


नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूती स्थिति नाश हेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे विरञ्चि नारायण शङ्करात्मन्‌॥ १॥
namaḥ savitre jagadekacakṣuṣe jagatprasūtī sthiti nāśa hetave |
trayīmayāya triguṇātma dhāriṇe virañci nārāyaṇa śaṅkarātman || 1||

यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपम्‌।
दारिद्र्य दुखक्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ २॥
yanmaṇḍalaṁ dīptikaraṁ viśālaṁ ratnaprabhaṁ tīvramanādi rūpam |
dāridrya dukhakṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 2||


यन्मण्डलं देव गणैः सुपूजितं विप्रैः स्तुतं भावनमुक्ति कोविदम्‌।
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ३॥
yanmaṇḍalaṁ deva gaṇaiḥ supūjitaṁ vipraiḥ stutaṁ bhāvanamukti kovidam |
taṁ devadevaṁ praṇamāmi sūryaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 3||


यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्म रूपम्‌।
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ४॥
yanmaṇḍalaṁ jñāna ghanaṁ tvagamyaṁ trailokya pūjyaṁ triguṇātma rūpam |
samasta tejomaya divyarūpaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 4||



यन्मण्डलं गुढ़मति प्रबोधं धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्‌।
यत्सर्व पाप क्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ५॥
yanmaṇḍalaṁ guṛhamati prabodhaṁ dharmasya vṛddhiṁ kurute janānām |
yatsarva pāpa kṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 5||


यन्मण्डलं व्याधि विनाश दक्षं यदृग्यजुः सामसु संप्रगीतम्‌।
प्रकाशितं येन भूर्भुवः स्वः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ६॥
yanmaṇḍalaṁ vyādhi vināśa dakṣaṁ yadṛgyajuḥ sāmasu saṁpragītam |
prakāśitaṁ yena bhūrbhuvaḥ svaḥ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 6||


यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति गायन्ति यच्चारण सिद्ध सङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ७॥
yanmaṇḍalaṁ vedavido vadanti gāyanti yaccāraṇa siddha saṅghāḥ |
yadyogino yogajuṣāṁ ca saṅghāḥ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 7||

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश्चकुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्कालकल्प क्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ८॥
yanmaṇḍalaṁ sarvajaneṣu pūjitaṁ jyotiścakuryādiha martyaloke |
yatkālakalpa kṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 8||

यन्मण्डलं विश्वसृजं प्रसीदमुत्पत्तिरक्षा प्रलय प्रगल्भम्‌।
यस्मिञ्जगत्संहरतेऽखिलं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ९॥
yanmaṇḍalaṁ viśvasṛjaṁ prasīdamutpattirakṣā pralaya pragalbham |
yasmiñjagatsaṁharate’khilaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 9||

यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोरात्मा परं धाम विशुद्धतत्त्वम्‌।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्ये पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ १०॥
yanmaṇḍalaṁ sarvagatasya viṣṇorātmā paraṁ dhāma viśuddhatattvam |
sūkṣmāntarairyogapathānugamye punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 10||

यन्मण्डलं वेदविदोपगीतं यद्योगिनां योग पथानुगम्यम्‌।
तत्सर्व वेदं प्रणमामि सूर्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ १२॥
yanmaṇḍalaṁ vedavidopagītaṁ yadyogināṁ yoga pathānugamyam |
tatsarva vedaṁ praṇamāmi sūryaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 12||

Shree Surya Dev श्री सूर्यमण्डलाष्टकम् Surya MandalaAshtakam

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