बुधवार, 14 जून 2017

वट सावित्री व्रत 2018: जानें कथा और महत्व के बारे में

वट सावित्री व्रत

यूं तो भारतवर्ष में कर्इ व्रत-त्यौहार मनाए जाते है लेकिन इनमें से कुछ एेसे व्रत है जो आदर्श नारीत्व के प्रतीक के रूप में जाने जाते है। आैर इन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत। ये व्रत हर विवाहिता के लिए अहम माना जाता है। जिसके तहत विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए ये व्रत रखती है। हालांकि इस व्रत को लेकर एक निश्चित तिथि नहीं है। यानि कुछ पुराणों में जहां ये व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को करना बताया गया है वहीं कर्इ जगह वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को करने का विधान है। लेकिन दोनों का उदेश्य एक समान है, सौभाग्य की वृद्घि। तो आइए जानते है वट सावित्री व्रत की कथा आैर इससे जुड़े विभिन्न पहलूआें के बारे मेंः

वट सावित्री व्रत 2017 तारीख:
25 मर्इ, गुरूवार

वट सावित्री व्रत कथाः
ये कथा सावित्री आैर सत्यभाम की है। सावित्री एक संपन्न राजा की बेटी थी जबकि सत्यवान बहुत ही दरिद्रतापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा होता है क्यूंकि उसके पिता का राजपाट सब कुछ छिन लिया जाता था। उसके माता-पिता के आंखों की रोशनी भी चली जाती है। इस कारण वो एक आम इंसान की तरह जिंदगी व्यतीत करते है। जब सावित्री आैर सत्यवान के विवाह की बात चलती है तो नारद मुनि आकर सावित्री के पिता को बताते है कि वे सत्यवान के साथ अपनी पुत्री का विवाह ना करें क्यूंकि सत्यवान अल्पायु है। लेकिन इसके बावजूद सावित्री की जिद के कारण वे इन दोनों का विवाह कर देते है। नारदजी द्वारा सत्यवान की मृत्यु के लिए बताए गए दिन में जब चार दिन शेष बचते है तभी से सावित्री व्रत रखने लगती है। नियत दिन आने पर सत्यवान पेड़ काटने के लिए जंगल जाता है, तब सावित्री भी उसके साथ चल देती है। जैसे ही सत्यवान पेड़ पर चढ़ता है कि उसके सिर में असहनीय दर्द होने लगता है आैर वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट जाता है।


कुछ देर बाद साक्षात यमराज अपने दूतों के साथ वहां पहुंचते है। आैर सत्यवान के जीवात्मा को लेकर वहां से जाने लगते है, सावित्री भी उनके पीछे-पीछे लगती है। यमराज सावित्री को पीछे आने के लिए मना करते है लेकिन सावित्री कहती है कि जहां तक मेरे पति जाएंगे वहां तक मुझे जाना चाहिए। इस पर यमराज प्रसन्न होते है आैर सावित्री को काेर्इ वरदान मांगने को कहते है सावित्री उनसे अपने सास-ससुर की नेत्र-ज्योति वापिस मांगती है। इस पर यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ़ने लगते है। लेकिन फिर भी सावित्री उनके पीछे-पीछे चलती रहती है, इस पर यमराज उसे फिर से वर मांगने को कहते है तो सावित्री कहती है कि मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए। यमराज तथास्तु कहकर उसे लौट जाने को कहते है। लेकिन फिर भी सावित्री उनके पीछे-चलती रहती है। यमराज उसे एक आैर वर मांगने को कहते है तो सावित्री कहती है कि मैं सत्यवान के साै पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। सावित्री की मनोकामना सुनकर यमराज का दिल पिघल जाता है आैर वे सावित्री की मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद देते है। इसके बाद सावित्री उसी वट वृक्ष्र के पास वापिस लौटती है, जहां सत्यवान में पुनः प्राणों का संचार होता है आैर वो उठकर बैठ जाता है। इस तरह सावित्री को उसका सुहाग वापिस मिल जाता है आैर वो उसके साथ सुखद ग्रहस्थ जीवन बिताती है।


वट सावित्री व्रत की पूजा विधिः

सबसे पहले व्रत करने वाली महिलाएं सुबह उठकर नित्य दिनचर्या से निवृत्त होकर शुद्घ जल से स्नान करें। जिसके बाद नए वस्त्र धारणकर सोलह श्रृंगार करें। फिर वट वृक्ष के नीचे जाकर आसपास की जगह को साफ आैर स्वच्छ कर वहां सत्यवान आैर सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। जिसके बाद सिंदूर, चंदन, पुष्प, रोली, अक्षत इत्यादि प्रमुख पूजन सामग्री से पूजन करें। फिर लाल कपड़ा, फल आैर प्रसाद चढ़ाए। इसके पश्चात धागे को बरगद के पेड़ में बांधकर जितना  संभव हो सकें उतनी बार परिक्रमा करें। फिर सावित्री-सत्यवान की कथा सुनें आैर ब्राहमण या जरूरतमंद को दान करें। जिसके बाद अपने-अपने घर लौट जाए आैर घर पहुंचकर पति का आशीर्वाद लें। व्रत शाम को खोलें।


वट वृक्ष की पूजा का महत्वः

भारतीय संस्कृति में कर्इ वृक्षों में भगवान का वास माना जाता है आैर इनकी पूजा विशिष्ट फल देने वाली मानी जाती है। इन्हीं में से एक है ‘बरगद का पेड़’ जिसे ‘वट वृक्ष’ भी कहा जाता है। पुराणों में वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का वास माना गया है। इसके नीचे बैठकर किसी भी प्रकार का पूजन करने, कथा सुनने या कोर्इ अन्य धार्मिक कार्य करने से शुभ फल मिलते है। इस वृक्ष में लटकी जटाआें को शिव की जटाएं मानी जाती है।

॥ सर्वरोगनाशक श्रीसूर्यस्तवराजस्तोत्रम् ॥

विनियोगः -

ॐ श्री सूर्यस्तवराजस्तोत्रस्य श्रीवसिष्ठ ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । 
श्रीसूर्यो देवता । सर्वपापक्षयपूर्वकसर्वरोगोपशमनार्थे पाठे विनियोगः ।

 ऋष्यादिन्यासः - 
श्रीवसिष्ठऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे । श्रीसूर्यदेवाय नमः हृदि । सर्वपापक्षयपूर्वकसर्वरोगापशमनार्थे पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ । 

ध्यानं - 

ॐ रथस्थं चिन्तयेद् भानुं द्विभुजं रक्तवाससे । 
दाडिमीपुष्पसङ्काशं पद्मादिभिः अलङ्कृतम् ॥ 

मानस पूजनं एवं स्तोत्रपाठः - 

ॐ विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः । 
लोकप्रकाशकः श्रीमान् लोकचक्षु ग्रहेश्वरः ॥ 
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा । 
तपनः तापनः चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः ॥ 
गभस्तिहस्तो ब्रध्नश्च सर्वदेवनमस्कृतः । 
एकविंशतिः इत्येष स्तव इष्टः सदा मम ॥ 

॥ फलश्रुतिः ॥ 

 श्रीः आरोग्यकरः चैव धनवृद्धियशस्करः । 
स्तवराज इति ख्यातः त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ 
यः एतेन महाबहो द्वे सन्ध्ये स्तिमितोदये । 
स्तौति मां प्रणतो भूत्वा सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥ 
कायिकं वाचिकं चैव मानसं यच्च दुष्कृतम् । 
एकजप्येन तत् सर्वं प्रणश्यति ममाग्रतः ॥ 
एकजप्यश्च होमश्च सन्ध्योपासनमेव च । 
बलिमन्त्रोऽर्घ्यमन्त्रश्च धूपमन्त्रस्तथैव च ॥ 
अन्नप्रदाने स्नाने च प्रणिपाति प्रदक्षिणे । 
पूजितोऽयं महामन्त्रः सर्वव्याधिहरः शुभः ॥  
एवं उक्तवा तु भगवानः भास्करो जगदीश्वरः । 
आमन्त्र्य कृष्णतनयं तत्रैवान्तरधीयत ॥ 
 साम्बोऽपि स्तवराजेन स्तुत्वा सप्ताश्ववाहनः । 
पूतात्मा नीरुजः श्रीमान् तस्माद्रोगाद्विमुक्तवान् ॥ 

 भगवान् सूर्यनामावली 

१. विकर्तन २. विवस्वान् ३. मार्तण्ड ४. भास्कर ५. रवि ६. लोकप्रकाशक ७. श्रीमान् ८. लोकचक्षु ९. ग्रहेश्वर १०. लोकसाक्षी ११. त्रिलोकेश १२. कर्ता १३. हर्ता १४. तमिस्रहा १५. तपन १६. तापन १७. शुचि १८. सप्ताश्ववाहन १९. गभस्तिहस्त २०. ब्रघ्न ( ब्रह्मा ) २१. सर्वदेवनमस्कृत इति ।

पुष्य नक्षत्र पर करें ये काम, कार्य सिद्धि के साथ मिलेगी स्थायी समृद्धि

हिन्दू धर्म ग्रंथों में पुष्य नक्षत्र को सबसे शुभकारक नक्षत्र कहा जाता है। पुष्य का अर्थ होता है कि पोषण करने वाला और ऊर्जा-शक्ति प्रदान करने वाला नक्षत्र। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति हमेशा ही लोगों की भलाई व सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे जातक अपनी मेहनत और साहस के बल पर जिंदगी में तरक्की प्राप्त करते हैं। मान्यता है कि इस शुभ दिन पर संपत्ति और समृद्धि की देवी माँ लक्ष्मी का जन्म हुआ था। जब भी गुरुवार अथवा रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र आता है तो इस योग को क्रमशः गुरु पुष्य नक्षत्र और रवि पुष्य नक्षत्र के रूप में जाना जाता है। यह योग अक्षय तृतीया, धन तेरस, और दिवाली जैसी धार्मिक तिथियों की भांति ही शुभ होता है। कहते हैं कि इस दिन माँ लक्ष्मी घर में बसती है और वहां एक लंबे समय तक विराजती है इसीलिए, इस यह घड़ी पावन कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का स्वभाव फलप्रदायी और ध्यान रखने वाला है। पुष्य नक्षत्र के दौरान किए जाने वाले कार्यों से जीवन में समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन ग्रहों के अनुकूल स्थितियों में भ्रमण कर रहे होने से वे आपके जीवन में शांति, संपत्ति और स्थायी समृद्धि लेकर आते हैं। क्या वर्ष 2017 में आपके जीवन में समृद्घि रहेगी ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें 2017 विस्तृत वार्षिक रिपोर्ट।  

वैदिक ज्योतिष में महात्मय:
हमारे वैदिक ज्योतिष में बारह राशियों में समाविष्ट होने वाले 27 नक्षत्रों में आठवें नक्षत्र ‘पुष्य’ को सबसे शुभ नक्षत्र कहते हैं। इसी नक्षत्र में गुरु उच्च का होता है। देवों के आशीर्वाद से पुरस्कृत इस नक्षत्र के देवता बृहस्पति और दशा स्वामी शनि हैं। कर्क राशि के अंतर्गत समाविष्ट होने से इस नक्षत्र के राशिधिपति चंद्र हैं। इस प्रकार से गुरु व चंद्र के शुभ संयोग इस नक्षत्र में होने से किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए पुष्य नक्षत्र श्रेष्ठ माना जाता है। क्या आपकी जन्मकुंडली में महत्वपूर्ण ग्रह अच्छी स्थिति में विराजमान है ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें जन्मपत्री रिपोर्ट।

जीवन में समृद्धि का आगमनः
पुष्य नक्षत्र का दशा स्वामी शनि होने से इस नक्षत्र के दरमियान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है। पुष्य नक्षत्र में किए गए कामों को हमेशा सफलता व सिद्धि मिलती है। इसलिए, विवाह को छोड़कर हर एक कार्यों के लिए पुष्य नक्षत्र को शुभ माना जाता है। दिवाली के दिनों में चोपड़ा खरीदने के लिए व्यापारीगण पुष्य नक्षत्र को विशेष महत्व देते हैं। इसके अलावा, वर्ष के दौरान भी पुष्य नक्षत्र में जब गुरु पुष्यामृत योग बन रहा हो तब सोने, आभूषण और रत्नों को खरीदने की प्रथा सदियों से प्रचलित है।

पुष्य नक्षत्र में किए जाने वाले मांगलिक कार्य:

– इस मंगलकर्ता नक्षत्र के दौरान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है।
– ज्ञान और विद्याभ्यास के लिए पावन दिन।
– इस दिन आध्यात्मिक कार्य किए जा सकते हैं।
– मंत्रों, यंत्रों, पूजा, जाप और अनुष्ठान हेतु शुभ दिन।
– माँ लक्ष्मी की उपासना और श्री यंत्र की खरीदी करके जीवन में समृद्धि ला सकते हैं।
– इस समय के दौरान किए गए तमाम धार्मिक और आर्थिक कार्यों से जातक की उन्नति होती है।

गुरु,शनि और रवि पुष्य नक्षत्र :
गुरुवार और रविवार के दिन पड़ने वाले पुष्य योग को गुरु पुष्य और रवि पुष्य नक्षत्र कहते हैं। गुरु पुष्य और रवि पुष्य योग सबसे शुभ माने जाते हैं। इस समय के दौरान छोटे बालकों के उपनयन संस्कार और उसके बाद सबसे पहली बार विद्याभ्यास के लिए गुरुकुल में भेजा जाता है। इसका ज्ञान के साथ अटूट संबंध है एेसा कह सकते हैं। इसके अलावा, शनि व गुरु के संबंध को उत्तम ज्ञान की युति कहते हैं। पंचाग को देखकर हर एक कार्य करना चाहिए।

पुष्य नक्षत्रः मांगलिक कार्यों से शुभ फलों की प्राप्ति का पावन पर्वः

– इस दिन पूजा या उपवास करने से जीवन के हर एक क्षेत्र में सफलता की प्राप्ति होती है।
– कुंडली में विद्यमान दूषित सूर्य के दुष्प्रभाव को घटाया जा सकता है।
– इस दिन किए कार्यों को सिद्धि व सफलता मिलती है।
– धन का निवेश लंबी अवधि के लिए करने पर भविष्य में उसका अच्छा फल प्राप्त होता है।
– काम की गुणवत्ता और असरकारकता में भी सुधार होता है।
– इस शुभदायी दिन पर महालक्ष्मी की साधना करने से उसका विशेष व मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

पुष्य नक्षत्र को ब्रह्याजी का श्राप मिला था, इसलिए यह नक्षत्र शादी-विवाह के लिए वर्जित माना गया है। पुष्य नक्षत्र में दिव्य औषधियों को लाकर उनकी सिद्धि की जाती है। जीवन में संपत्ति और समृद्धि को आमंत्रित करने के लिए पुष्य नक्षत्र व्यक्ति को पूरा अवसर प्रदान करता है। इस दिन किए गए सभी मांगलिक कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण होते हैं।

शुक्रवार, 2 जून 2017

ऐसे करेंग भोजन तो होगी उन्नति

🍎 ऐसे करेंग भोजन तो होगी उन्नति

पुराणों के अनुसार अन्न में अन्नपूर्णा मां का वास माना गया है। सनातन धर्म में कोई भी हिंदू भोजन खाने से पूर्व उसे प्रणाम करता है। ताकि जो भोजन करने जा रहे हैं, वह स्वास्थ्य के लिए हितकर हो। 
जो व्यक्ति प्रतिदिन भोजन से पहले गौ माता को ग्रास अर्पित करता है, वह सत्यशील प्राणी श्री, विजय और ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति प्रात:काल उठने के बाद नित्य गौ माता के दर्शन करता है, उसकी अकाल मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती, यह बात महाभारत में बहुत ही प्रामाणिकता के साथ कही गई है। 

हिंदू धर्म के अनुसार मानव शरीर वायु, अग्नि, जल, आकाश और पृथ्वी से मिलकर बना है और हाथों की अंगुलियां इन तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। जब इन पांचों तत्वों के माध्यम से भोजन ग्रहण किया जाता है अर्थात चम्मच की बजाय हाथ से खाना खाया जाता है तो ये हमारे खाने में अवशोषित होकर हमें निरोगी बनाते हैं।

जो कोई प्रतिदिन पूरे संवत्-भर मौन रह कर भोजन करते हैं, वे हजारों-करोड़ों युगों तक स्वर्ग में पूजे जाते हैं अर्थात जो व्यक्ति संतोष के साथ जो मिले उसी पर संतुष्ट रहता है, उसे पृथ्वी पर ही स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। उसे न तो कोई दुख होता है और न ही कोई कष्ट। 

प्राचीन परम्परा के अनुसार खाना हमेशा जमीन पर पालथी मारकर ही खाना चाहिए। ऐसा करने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है। खड़े होकर अथवा मेज कुर्सी पर बैठकर खाना खाने से शरीर में अनेक विकार पैदा हो जाते हैं। इस बात को हमेशा याद रखें कि भोजन करने के बाद क्रोध नहीं करना चाहिए और न ही भोजन के तुरंत बाद व्यायाम करना चाहिए, इससे स्वास्थ्य को नुकसान होता है।🍋