मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

हनुमान चालीसा - तुलसीदास कृत-श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारी, बनरऊँ रघुवर विमल जसु जो दायकु फल चारी


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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारी ।।
बनरऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारी ।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार ।।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहुकलेस विकार ।।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।  जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा।  अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ।।
महावीर विक्रम बजरंगी।  कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुबेसा।  कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे।  काँधे मूँज जनेऊ साजे ।।
संकर सुवन केसरीनंदन।  तेज प्रतापमहा जग बन्दन ।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।  राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।  राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा।  विकट रूप धरि लंक जरावा ।।
भीम रूप धरि असुर सँहारे।  रामचंद्र के काज सँवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये।  श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई।  तुम मम प्रिय भरतही सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावें।  अस कहीश्रीपति कठ लगावें ।।
सनकादिक ब्रह्मादी मुनीसा।  नारद सारद सहित अहीसा ।।
जम कुबेर दिकपाल जहाँ ते।  कवि कोविद कही सके कहाँ ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा।  राममिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीसन माना।  लंकेस्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस जोजन पर भानु।  लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहि।  जलधि लांघी गये अचरज नाही ।।
दर्गम काज जगत के जेते।  सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे।  होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहें तुम्हारी सरना।  तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपे।  तीनो लोक हाँक ते काँपे ।।
भूत पिशाच निकट नहि आवे।  महावीर जब नाम नाम सुनावे ।।
नासे रोग हरि सब पीरा।  जपत निरंतरहनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुडावे।  मन क्रम वचन ध्यान जो लावे ।।
सब पर राम तपस्वी राजा।  तिन के काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावे।  सोई अमित जीवन फल पावे ।।
चारों जुग प्रताप तुम्हारा।  हें परसिद्ध जगत उजियारा ।।
साधु संत के तुम रखवारे।  असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अस्ट सिद्धि नों निधि के दाता।  असबर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।  सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावे।  जनम जनमके दुःख बिसरावे ।।
अन्त काल रघुवर पुर जाई।  जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई।  हनुमत सेई सर्ब सुख करई ।।
संकट कटे मिटे सब पीरा।  जो सुमिरेहनुमत बलबीरा ।।
जे जे जे हनुमान गोसाई।  कृपा कहु गुरुदेव की नाई ।।
जो सत बार पाठ कर कोई।  छुटेहि बंदि महा सुख होई ।।
जो यह पड़े हनुमान चालीसा।  होई सिद्धि साखी गोरिसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजे नाथ ह्रदय महँ डेरा ।।

पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप।।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।
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शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

सूर्य देव की आरती

सूर्य देव की आरती

आरती - 1
सूर्य देव की आरती 
 
जय कश्यप नन्दन, ऊँ जय अदिति नन्दन।
द्दिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥ ऊँ जय….
जय सप्त अश्वरथ राजित, एक चक्रधारी।
दु:खहारी, सुखकारी, मानस मलहारी॥ ऊँ जय….
जय सुर मुनि भूसुर वन्दित, विमल विभवशाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरण माली॥ ऊँ जय….
जय सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन, भव-बंधन भारी॥ ऊँ जय…
जय कमल समूह विकासक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत अति, मनसिज संतापा॥ ऊँ जय…
जय नेत्र व्याधि हर सुरवर, भू-पीड़ा हारी।
वृष्टि विमोचन संतत, परहित व्रतधारी॥ ऊँ जय…
जय सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब, तत्वज्ञान दीजै॥ जय ..


आरती -2 
सूर्य देव आरती 

 जय जय जय रविदेव जय जय जय रविदेव l
रजनीपति मदहारी शतलद जीवन दाता ll
पटपद मन मदुकारी हे दिनमण दाता l
जग के हे रविदेव जय जय जय स्वदेव ll
नभ मंडल के वाणी ज्योति प्रकाशक देवा l
निजजन हित सुखराशी तेरी हम सब सेवा ll
करते हैं रविदेव जय जय जय रविदेव l
कनक बदन मन मोहित रुचिर प्रभा प्यारी ll
नित मंडल से मंडित अजर अमर छविधारी l
हे सुरवर रविदेव जय जय जय रविदेव ll

श्री सूर्य देव चालीसा

 
श्री सूर्य देव
॥दोहा॥
कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अङ्ग।
पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के सङ्ग॥

॥चौपाई॥
जय सविता जय जयति दिवाकर!। सहस्त्रांशु! सप्ताश्व तिमिरहर॥
भानु! पतंग! मरीची! भास्कर!। सविता हंस! सुनूर विभाकर॥
विवस्वान! आदित्य! विकर्तन। मार्तण्ड हरिरूप विरोचन॥
अम्बरमणि! खग! रवि कहलाते। वेद हिरण्यगर्भ कह गाते॥
सहस्त्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि। मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि॥
अरुण सदृश सारथी मनोहर। हांकत हय साता चढ़ि रथ पर॥
मंडल की महिमा अति न्यारी। तेज रूप केरी बलिहारी॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते। देखि पुरन्दर लज्जित होते॥
मित्र मरीचि भानु अरुण भास्कर। सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥
पूषा रवि आदित्य नाम लै। हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं। मस्तक बारह बार नवावैं॥
चार पदारथ जन सो पावै। दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥
नमस्कार को चमत्कार यह। विधि हरिहर को कृपासार यह॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई। अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥
बारह नाम उच्चारन करते। सहस जनम के पातक टरते॥
उपाख्यान जो करते तवजन। रिपु सों जमलहते सोतेहि छन॥
धन सुत जुत परिवार बढ़तु है। प्रबल मोह को फंद कटतु है॥
अर्क शीश को रक्षा करते। रवि ललाट पर नित्य बिहरते॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत। कर्ण देस पर दिनकर छाजत॥
भानु नासिका वासकरहुनित। भास्कर करत सदा मुखको हित॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे। रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा। तिग्म तेजसः कांधे लोभा॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर। त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन। भानुमान उरसर्म सुउदरचन॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर। कटिमंह, रहत मन मुदभर॥
जंघा गोपति सविता बासा। गुप्त दिवाकर करत हुलासा॥
विवस्वान पद की रखवारी। बाहर बसते नित तम हारी॥
सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै। रक्षा कवच विचित्र विचारे॥
अस जोजन अपने मन माहीं। भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं ॥
दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै। जोजन याको मन मंह जापै॥
अंधकार जग का जो हरता। नव प्रकाश से आनन्द भरता॥
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही। कोटि बार मैं प्रनवौं ताही॥
मंद सदृश सुत जग में जाके। धर्मराज सम अद्भुत बांके॥
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा। किया करत सुरमुनि नर सेवा॥
भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों। दूर हटतसो भवके भ्रम सों॥
परम धन्य सों नर तनधारी। हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी॥
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन। मधु वेदांग नाम रवि उदयन॥
भानु उदय बैसाख गिनावै। ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै॥
यम भादों आश्विन हिमरेता। कातिक होत दिवाकर नेता॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं। पुरुष नाम रविहैं मलमासहिं॥
॥दोहा॥
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य।
सुख सम्पत्ति लहि बिबिध, होंहिं सदा कृतकृत्य॥

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

विभिन्न रोगों के लिए औषधियों के नुस्खे


(1) 50 से 200 मि.ली. छाछ में जीरा और सेंधा नमक डालकर उसके साथ निर्गुण्डी के पत्तों का 20 से 50 मि.ली. रस पीने से वात रोगों से मुक्ति मिलती है।

(2) रसवंती के साथ शहद मिलाकर लगाने से डिप्थिरिया, टॉन्सिल, गले के रोग, मुँह का पकना, भगंदर, गंडमाल आदि मिटते हैं।

(3) मेथी की सब्जी का नियमित सेवन करने से अथवा उसका दो-दो चम्मच रस दिन में दो बार पीने से शरीर में कोई रोग नहीं होता।

(4) असगंध का चूर्ण, गुडुच का चूर्ण एवं गुडुच का सत्व 1-1 तोला लेकर उसमें घी-शहद (विषम-मात्रा) में मिलाकर दो महीने तक (शिशिर ऋतु में) में खाने से कमजोरी दूर होकर सब रोग नष्ट हो जाते हैं।

(5) स्वच्छ पानी को उबालकर आधा कर दें। ऐसा पानी बुखार, कफ, श्वास, पित्तदोष, वायु, आमदोष तथा मेद का नाशक है।

(6) प्रतिदिन प्रातःकाल 1 से 3 ग्राम हरड़ के सेवन से हर प्रकार के रोग से बचाव होता है।


महात्मा प्रयोग - हरड़ का पाँच तोला चूर्ण एवं सोंठ का ढाई तोला चूर्ण लेकर उसमें आवश्यकतानुसार गुड़ मिलाकर चने जितनी गोली बनायें। रात्रि को सोते समय 3 से 6 गोली पानी के साथ लें। जब जरूरत पड़े तब तमाम रोगों से उपयोग किया जा सकता है। यह कब्जियत को मिटाकर साफ दस्त लाती है।


कल्याण अमृत बिन्दुः कपूर, इजमेन्ट के फूल(क्रिस्टल मेन्थल), अजवाइन के फूल तीनों समान मात्रा में लेकर शीशी में डाल दें। तीनों मिलकर पानी बन जायेंगे। शीशी के ऊपर कार्क लगाकर फिर बंद कर दें ताकि दवा उड़ न जाये। इस दवा की 2 से 5 बूँद दिन में 3 से 4 बार पानी के साथ देने से कॉलरा, दस्त, मंदाग्नि, अरूचि, पेट का दर्द, वमन आदि मिटता है। दाँत अथवा दाढ़ के दर्द में इसमें रूई का फाहा भीगोकर लगायें। सिर अथवा बदनदर्द में इस दवा को तेल में मिलाकर मालिश करें। सर्दी-खाँसी होने पर थोड़ी सी दवा ललाट एवं नाक पर लगायें। छाती के दर्द में छाती पर लगायें। यह दवा सफर में साथ रखने से डॉक्टर का काम करती है।


विभिन्न रोगों के लिए आयुर्वेद औषधियों के नुस्खे




आज का विचार


"रणभूमि मेँ दस हजार योद्धाओँ को जीतने वाले को बलवान माना जाता है किँतु इससे भी बलवान वह है जो अपने मन को जीत लेता है...!!!"

शनिवार, 26 सितंबर 2015

शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो


शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो


कहा जाता है कि सुख-दुख इंसान के कर्मों के फल हैं। वह जैसा बीज बोता है उसे वैसा ही फल मिल जाता है। वास्तु, अध्यात्म और ज्योतिष आदि में सफल व सुखी जीवन के सूत्र इसीलिए बनाए गए हैं ताकि मनुष्य शुभ काम करे और उसे शुभ फल प्राप्त हो। अनजाने में किए गए कुछ कार्य उसके दुख का कारण भी बन सकते हैं। सभी शास्त्र ऐसे कार्यों से दूर रहने का उपदेश देते हैं। आप भी जानिए सुखी जीवन के लिए किन कार्यों से दूर रहना चाहिए।

1- मुख्य द्वार के पास या सामने कूड़ादान न रखें और न ही वहां पानी इकट्ठा होने दें। इससे पड़ोसी भी शत्रु हो जाते हैं।

2- रात को सोने से पहले रसोई में एक बाल्टी पानी भरकर रखें। इससे घर में सुख व समृद्धि का वास होता है। खाली बाल्टी घर में तनाव और चिंता लेकर आती है।

3- सूर्यास्त के बाद किसी के घर दूध, दही, नमक, तेल और प्याज लेने न जाएं। इससे जीवन में बाधाएं आती हैं और कष्टों का सामना करना पड़ता है। साथ ही परिजनों का मान-सम्मान कमजोर होता है।

4- जब यात्रा के लिए निकलें तो घर से पूरे परिवार को एक साथ नहीं निकलना चाहिए। इससे घर की लक्ष्मी और यश का नाश होता है।

5- छत पर पुराने मटके या फूटे हुए बर्तन नहीं रखने चाहिए। खासतौर से रसाईघर की छत पर पुरानी चीजें न रखें। ये गरीबी को आमंत्रण देते हैं।

6- कभी किसी की गरीबी, अपंगता या रोग का मजाक न बनाएं और न उसकी नकल करें। संभव हो तो उसकी यथाशक्ति सहायता करें। किसी की लाचारी का मजाक बनाने से जीवन में दुर्भाग्य का आगमन होता है और उस व्यक्ति को उसका दंड मिलता है।

7- टूटे हुए दर्पण में चेहरा देखना या टूटे हुए कंघे का उपयोग करने से भी अशुभ फल मिलता है। माना जाता है कि इससे जीवन में नकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है जो शुभ कार्यों में बाधा पहुंचाती है।

सोमवार, 31 अगस्त 2015

Benefits of Deep Breathing


1. Breathing Detoxifies and Releases Toxins
Your body is designed to release 70% of its toxins through breathing. If you are not breathing effectively, you are not properly ridding your body of its toxins i.e. other systems in your body must work overtime which could eventually lead to illness. When you exhale air from your body you release carbon dioxide that has been passed through from your bloodstream into your lungs. Carbon dioxide is a natural waste of your body's metabolism.

2. Breaw your body feels when you are tense, angry, scared or stressed. 
It constricts. Your muscles get tight and your breathing becomes shallow. When your breathing Releases Tension Think hothing is shallow you are not getting the amount of oxygen that your body needs.

3. Breathing Relaxes the Mind/Body and Brings Clarity
Oxygenation of the brain reducing excessive anxiety levels. Paying attention to your breathing. Breathe slowly, deeply and purposefully into your body. Notice any places that are tight and breathe into them. As you relax your body, you may find that the breathing brings clarity and insights to you as well.

4. Breathing Relieves Emotional Problems
Breathing will help clear uneasy feelings out of your body.

5. Breathing Relieves Pain.
You may not realize its connection to how you think, feel and experience life. For example, what happens to your breathing when you anticipate pain? You probably hold your breath. Yet studies show that breathing into your pain helps to ease it.

6. Breathing Massages Your Organs
The movements of the diaphragm during the deep breathing exercise massages the stomach, small intestine, liver and pancreas. The upper movement of the diaphragm also massages the heart. When you inhale air your diaphragm descends and your abdomen will expand. By this action you massage vital organs and improves circulation in them. Controlled breathing also strengthens and tones your abdominal muscles.

7. Breathing Increases Muscle
Breathing is the oxygenation process to all of the cells in your body. With the supply of oxygen to the brain this increases the muscles in your body.

8. Breathing Strengthens the Immune System
Oxygen travels through your bloodstream by attaching to haemoglobin in your red blood cells. This in turn then enriches your body to metabolise nutrients and vitamins.

9. Breathing Improves Posture
Good breathing techniques over a sustained period of time will encourage good posture. Bad body posture will result of incorrect breathing so this is such an important process by getting your posture right from early on you will see great benefits.

10. Breathing Improves Quality of the Blood
Deep breathing removes all the carbon-dioxide and increases oxygen in the blood and thus increases blood quality.

11. Breathing Increases Digestion and
Assimilation of food
The digestive organs such as the stomach receive more oxygen, and hence oper;ates more efficiently. The digestion is further enhanced by the fact that the food is oxygenated more.

12. Breathing Improves the Nervous System
The brain, spinal cord and nerves receive increased oxygenation and are more nourished. This improves the health of the whole body, since the nervous system communicates to all parts of the body.

13. Breathing Strengthen the Lungs
As you breathe deeply the lung become healthy and powerful, a good insurance against respiratory problems.

14. Proper Breathing makes the Heart Stronger.
Breathing exercises reduce the workload on the heart in two ways. Firstly, deep breathing leads to more efficient lungs, which means more oxygen, is brought into contact with blood sent to the lungs by the heart. So, the heart doesn't have to work as hard to deliver oxygen to the tissues. Secondly, deep breathing leads to a greater pressure differential in the lungs, which leads to an increase in the circulation, thus resting the heart a little.

15. Proper Breathing assists in Weight Control.
If you are overweight, the extra oxygen burns up the excess fat more efficiently. If you are underweight, the extra oxygen feeds the starving tissues and glands.

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

विषय-अनुक्रमणिका

श्री गणेश 
श्री सङ्कष्टनाशन गणेश स्तोत्रम्

गुरु
गुरुपादुका स्तवन (Guru Paduka Staban)

लक्ष्मी
श्री सूक्तं. Shri Shuktam ( with song video)
॥ कनकधारा स्तोत्र ॥ (Kanak Dhara Stotra)

माता लक्ष्मी जी की आरती


शिव -
श्री शिबपञ्चाक्षरस्तोत्रम् - Shree Shiva Panchakshari Stotra
श्री मृत्युञ्जयस्तोत्रम् - Shree Mrityunjaya Stotra
शिवताण्डवस्तोत्रम् - Shiva Tandava Stotra
श्री चन्द्रशेखराष्टकम् - Shree Chandra Sekaharstakam


श्री राम 
श्रीरामाष्टकम् - Shree Ramastakam


हनुमान 
संकटमोचन हनुमानाष्टकं - Sankatamochan Hanuman Ashtakam





श्री देवी स्‍तम्भिका

माँ दुर्गा
.
नव दुर्गा मंत्र 
प्रथम स्वरूप माता शैलपुत्री (First Form of Goddess- Shailputri Stuti Mantra)
द्वितीय स्वरुप माँ ब्रह्मचारिणी (Second Form of Goddess Brahmacharini Mata Stuti Mantra)
तृतीय स्वरूप माँ चंद्रघंटा (Third Form of Goddess- Chandraghanta Mata Stuti Mantra)
चतुर्थ स्वरुप माँ कुष्मांडा (Fourth Form of Goddess Kushmanda Mata Stuti Mantra)
पंचम स्वरुप स्कन्दमाता (Fifth Form of Goddess- Skand Mata Stuti Mantra)
छठ रूप माँ कात्यायनी (Sixth Form of Goddess- Katyayani Stuti Mantra)
सातवीं शक्ति माँ कालरात्रि (7th Form of Goddess - Kaalratri Mata)
अष्टम स्वरुप महागौरी (Eighth Form of Goddess- MahaGauri Stuti Mantra)


मंत्र एवं स्तोत्रं 
दुर्गा सप्त श्लोकी (All Mantras With Meaning)
श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्
नवदुर्गास्तोत्रम (NAVDURGA)
श्री सूक्तं. Shri Shuktam ( with song video)
॥ श्री ललिता सहस्र नाम स्तोत्रम् ॥
॥ कनकधारा स्तोत्र ॥ (Kanak Dhara Stotra)

कथा एवं पूजन विधि-
श्रीयंत्र दैनिक पूजन विधि
सती शिव की कथा

आरती-
सरस्वती जी की आरती
संतोषी माता की आरती
माता लक्ष्मी जी की आरती
श्री गंगा जी की आरती
श्री दुर्गा जी की आरती
श्री पार्वती माता की आरती


सोमवार, 17 अगस्त 2015

॥ श्री रुद्राष्टकम ॥ - Rudrashtak - महाकवि तुलसीदास कृत

श्री रुद्राष्टकम महाकवि तुलसीदास जी ने लिखा था | रुद्राष्टक भगवान शिव की उपासना हैं जिसमे उनके रूप, सौन्दर्य, बल का भाव विभोर चित्रण किया गया हैं |रुद्राष्टक काव्य संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं |

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

॥ श्री भवानी अष्टकं ॥ (Shri Bhavani Ashtakam)


न तातो न माता न बन्धुर्न दाता 
न पुत्रो न पुत्री न भूत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥१॥

Na tato, na mata, na bandhur na data,
Na putro, na putri , na bhrutyo , na bharta,
Na jayaa na Vidhya, na Vrutir mamaiva,
Gatistwam, Gatisthwam Twam ekaa Bhavani.


Neither the mother nor the father,
Neither the relation nor the friend,
Neither the son nor the daughter,
Neither the servant nor the husband,
Neither the wife nor the knowledge,
And neither my sole occupation,
Are my refuges that I can depend, Oh, Bhavani,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.



भवाब्धावपारे महादु:खभीरु:
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्त:।
कुसंसारपाशप्रबद्ध: सदाहं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥२॥
Bhavabdhava pare, Maha dhukhah Bheeruh,
Papaata prakami , pralobhi pramatah,
Kusamsara pasha prabadhah sadaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani..


I am in this ocean of birth and death,
I am a coward, who dare not face sorrow,
I am filled with lust and sin,
I am filled with greed and desire,
And tied I am, by the this useless life that I lead,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.


न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम् 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥३॥
Na Janaami Dhanam, Na cha dhyana yogam,
Na janami tantram, na cha stotra mantram,
Na janami poojam, na cha nyasa yogam,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani..


Neither do I know how to give,
Nor do I know how to meditate,
Neither do I know Thanthra*,
Nor do I know stanzas of prayer,
Neither do I know how to worship,
Nor do I know the art of yoga,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani
* A form of worship by the yogis

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थ
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्तवं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥४॥
Na janami Punyam, Na janami theertam,
Na janami muktim, layam vaa kadachit,
Na janami bhaktim, vrutham vaapi maatha,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani.

Know I not how to be righteous,
Know I not the way to the places sacred,
Know I not methods of salvation,
Know I not how to merge my mind with God,
Know I not the art of devotion,
Know I not how to practice austerities, Oh, mother,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धि: कुदास:
कुलाचारहीन: कदाचारलीन:।
कुदृष्टि: कुवाक्यप्रबन्ध: सदाहम् 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥५॥
Kukarmi, kusangi, kubudhih, kudhasah,
Kulachara heenah, kadhachara leenah,
Kudrushtih, kuvakya prabandhah, sadaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.

Perform I bad actions,
Keep I company of bad ones,
Think I bad and sinful thoughts,
Serve I Bad masters,
Belong I to a bad family,
Immersed I am in sinful acts,
See I with bad intentions,
Write I collection of bad words,
Always and always,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.


प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥६॥
 
Prajesam, Ramesam, Mahesam, Suresam,
Dhinesam, Nisitheswaram vaa kadachit,
Na janami chanyath sadaham saranye,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.


Neither Do I know the creator,
Nor the Lord of Lakshmi,
Neither do I know the lord of all,
Nor do I know the lord of devas,
Neither do I know the God who makes the day,
Nor the God who rules at night,
Neither do I know any other Gods,
Oh, Goddess to whom I bow always,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥७॥
Vivadhe, Vishadhe, pramadhe, pravase,
Jale cha anale parvathe shatru madhye,
Aranye, saranye sada maam prapahi,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani.

 
While I am in a heated argument,
While I am immersed in sorrow,
While I am suffering an accident,
While I am travelling far off,
While I am in water or fire,
While I am on the top of a mountain,
While I am surrounded by enemies,
And while I am in a deep forest,
Oh Goddess, I always bow before thee,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani

अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीन: सदा जाडयवक्त्र:।
विषत्तौ प्रविष्ट: प्रणष्ट: सदाहं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥८॥
Anadho, dharidro, jara roga yukto,
Maha Ksheenah dheena, sada jaadya vaktrah,
Vipatou pravishtah, pranshatah sadhaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.

While being an orphan,
While being extremely poor,
While affected by disease of old age,
While I am terribly tired,
While I am in a pitiable state,
While I am being swallowed by problems,
And While I suffer serious dangers,
I always bow before thee,
So you are my refuge and only refuge, Bhavanid



श्रीमदाध्यशङ्कराचार्य विरचित श्री  भवानी अष्टकं

Shri Bhavani Ashtakam by Sri Adi Shankaracharya

Shri Bhavani Durga Maa Devi Adi Shankaracharya

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॥ श्री भवानी अष्टकं ॥ (Shri Bhavani Ashtakam)

सोमवार, 10 अगस्त 2015

॥ शिव मानसपूजा ॥ - भावार्थ सहित (Shiv Manas Puja)


आदि गुरु शंकराचार्यद्वारा रचित शिव मानस पूजा शिवकी एक अनूठी स्तुति है । यह स्तुति शिव भक्ति मार्गको अत्यधिक सरलताके साथ ही एक अत्यंत गूढ रहस्यको समझाता है । शिव मात्र भक्तिद्वारा प्राप्त हो सकते हैं, उनकी भक्ति हेतु बाह्य आडम्बरकी कोई आवश्यकता नहीं है । इस स्तुतिमें हम प्रभूको भक्तिद्वारा मानसिक रूपसे कल्पनाकी हुई वस्तुएं समर्पित करते हैं । हम उन्हें रत्न जडित सिहांसनपर आसीन करते हैं, वस्त्र, नैवेद्य तथा भक्ति अर्पण करते हैं; परन्तु ये सभी हम स्थूल रूपमें नहीं अपितु मानसिक रूपमें अर्पण करते हैं । इस प्रकार हम स्वयंको शिवको समर्पित कर शिव स्वरूपमें विलीन हो जाते हैं ।

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं।
नाना रत्न विभूषितम्‌ मृग मदामोदांकितम्‌ चंदनम॥


जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम्‌ गृह्यताम्‌॥1॥


मैं अपने मन में ऐसी भावना करता हूँ कि हे पशुपति देव! संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान हों। हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूँ। स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित है। केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूँ।
जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित है। सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिए।

सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम्‌॥


शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥


मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पाँच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदलीफल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं ताम्बूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया है। हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें।

छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा॥


साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥


हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चँवर और पंखा झल रहा हूँ। निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है। वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभि आदि की मधुर ध्वनियाँ आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं। स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूँ। प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें।



आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥


संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्‌॥4॥


हे शंकर जी, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वती जी हैं। मेरे प्राण आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूँ, वह आपकी ध्यान समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूँ, वह आपकी आराधना ही है।

कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्‌।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥5॥

हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं। वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए। हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो। जय हो।

इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा सम्पूर्णं

शिवमानसपूजा - भावार्थ सहित (Shiv Manas Puja)

रविवार, 9 अगस्त 2015

॥ मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥ Mritasanjeevani Stotram

मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्
Mritasanjeevani Stotram
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥
evamaradhy gaurishan devan mrityungjayameshvaran ।
mritasangjivanan namna kavachan prajapet sada ॥

गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्र्चात भक्तको सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ॥१॥  

सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं ।  
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥
sarat sarataran punyan guhyadguhyataran shubhan ।  
mahadevasy kavachan mritasangjivanamakan ॥
महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है ॥२॥
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं । 
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥
samahitamana bhootva shrinushv kavachan shubhan । 
 shritvaitaddivy kavachan rahasyan kuru sarvada ॥
[आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ॥३॥
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः ।  
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥
varabhayakaro yajva sarvadevanishevitah ।  
mrityungjayo mahadevah prachyan man patu sarvada ॥
जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥४॥

दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः। 
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥
dadhaanah shaktimabhayan trimukhan shadbhujah prabhuh ।  
sadashivo-a-gniroopi mamagneyyan patu sarvada ॥
अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओं वाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥५॥
 
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः । 
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥
ashtadasabhujopeto dandabhayakaro vibhuh ।  
yamaroopi mahadevo dakshinnasyan sadavatu ॥
अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें ॥६॥
 
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः । 
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥
khadgabhayakaro dhiro rakshogannanishevitah ।  
rakshoroopi mahesho man nairrityan sarvadavatu ॥
हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥७॥
 
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥
pashabhayabhujah sarvaratnakaranishevitah ।  
varunatma mahadevah pashchime man sadavatu ॥
हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥८॥

गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥
gadabhayakarah prannanayakah sarvadagatih ।  
vayavyan marutatma man shangkarah patu sarvada ॥
हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, प्राणो के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥९॥

शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः ।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥
shangkhabhayakarastho man nayakah parameshvarah ।  
sarvatmantaradigbhage patu man shangkarah prabhuh ॥
हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्यमें मेरी रक्षा करें ॥१०॥

शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः ।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥
shoolabhayakarah sarvavidyanamadhinayakah ।  
eeshanatma tathaishanyan patu man parameshvarah ॥
हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोण में मेरी रक्षा करें ॥११॥
 
ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥
oordhvabhage brahmaroopi vishvatma-a-dhah sadavatu ।  
shiro me shangkarah patu lalatan chandrashekharah ॥
ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभागमें मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें ॥१२॥

भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु ।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥
bhoomadhyan sarvalokeshastrinetro lochane-a-vatu ।  
bhrooyugman girishah patu karnau patu maheshvarah ॥
मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान् महेश्वर करें ॥१३॥

नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः ।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥
nasikan me mahadev oshthau patu vrishadhvajah । 
 jihvan me dakshinamoortirdantanme girisho-a-vatu ॥
महादेव मेरी नासीकाकी तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें ॥१४॥


मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥
mrituyngjayo mukhan patu kanthan me nagabhooshannah ।  
pinaki matkarau patu trishooli hridayan mam ॥
मृत्युञ्जय मेरे मुखकी एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठकी रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें ॥१५॥
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः ।  
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥
pangchavaktrah stanau patu udaran jagadishvarah । 
 nabhin patu viroopakshah parshvau me parvatipatih ॥
पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वतीपति पार्श्वभागकी रक्षा करें ॥१६॥
 
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥
katadvayan girishau me prishthan me pramathadhipah ।  
guhyan maheshvarah patu mamoroo patu bhairavah ॥
गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें ॥१७॥
 
जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका ।  
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥
januni me jagaddarta jangghe me jagadambika ।  
padau me satatan patu lokavandyah sadashivah ॥
जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघोकी तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरोंकी रक्षा करें ॥१८॥
 
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम ।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥
girishah patu me bharyan bhavah patu sutanmam ।  
mrityungjayo mamayushyan chittan me gannanayakah ॥
गिरीश मेरी भार्याकी रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रोंकी रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें ॥१९॥
 
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥
sarvanggan me sada patu kalakalah sadashivah ।  
etatte kavachan punyan devatanan ch durlabham ॥
कालोंके काल सदाशिव मेरे सभी अंगोकी रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवचका वर्णन मैंने तुमसे किया है ॥२०॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् ।  
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥
mritasangjivanan namna mahadeven keertitam।  
sahsravartanan chasy purashcharannamiritam ॥
महादेवजीने मृतसञ्जीवन नामक इस कवचको कहा है । इस कवचकी सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है ॥२१॥

यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः ।  
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥
yah pathechchhrinuyannityan shravayetsu samahitah ।  
sakalamrityun nirjity sadayushyan samashnute ॥
जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्युको जीतकर पूर्ण आयुका उपयोग करता है ॥ २२॥
 
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।  
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥
hasten va yada sprishtva mritan sangjivayatyasau । 
 aadhayovyadhyastasy n bhavanti kadachan ॥
जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवचका पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है । फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ॥२३॥

कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।  
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥
kalamriyumapi praptamasau jayati sarvada ।  
animadigunaishvaryan labhate manavottamah ॥
यह मृतसञ्जीवन कवच कालके गाल में गये हुए व्यक्तिको भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणोंसे युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है ॥२४॥

युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं ।  
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥
yuddarambhe pathitvedamashtavishativarakan ।  
yuddamadhye sthitah shatruh sadyah sarvairn drishyate ॥
युद्ध आरम्भ होनेके पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवचका २८ बार पाठ करके रणभूमिमें उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔंसे अदृश्य रहता है ॥२५॥
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै । 
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥
n brahmadini chastrani kshayan kurvanti tasy vai ।  
vijayan labhate devayuddamadhye-a-pi sarvada ॥
यदि देवतऔंके भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है ॥२६॥

प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं ।  
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥
pratarootthay satatan yah pathetkavachan shubhan । 
 akshayyan labhate saukhyamih loke paratr ch ॥
जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है ॥२७॥

सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।  
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥
sarvavyadhivinirmriktah sarvarogavivarjitah ।  
ajaramarano bhootva sada shodashavarshikah ॥
वह सम्पूर्ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके रोग उसके शरीरसे भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदाके लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है ॥२८॥

विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् । 
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥
vicharavyakhilan lokan prapy bhoganshch durlabhan ।  
tasmadidan mahagopyan kavacham samudahritam ॥
इस लोकमें दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता रहता है । इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है ॥२९॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥
mritasangjivanan namna devatairapi durlabham ॥
यह देवतओं के लिय भी दुर्लभ है ॥३०॥



  ॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥
  ॥ iti vasishth krit mritasangjivan stotram ॥
॥ इस प्रकार मृतसञ्जीवन कवच सम्पूर्ण हुआ ॥

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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

॥ कनकधारा स्तोत्रम् ॥
KanakDhara Stotram


 ॥कनकधारा स्तोत्रम्॥

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती,  भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।।
अङ्गीकृताखिल विभूतिरपाङ्गलीला, माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ।। 1 ।।

जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-वृक्ष का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो दृष्टि श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कृपादृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।। - 0.51


मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।
मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥२॥

जैसे भ्रमरी कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर दृष्टिमुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।।2।। - 1.13


विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥३॥

 
जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, उन मुरारी श्रीहरि को भी आनंदित करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर भी अवश्य पड़े।।3।। - 1.40

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥


शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।। - 2.02


बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥५॥


जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कृपादृष्टि मेरा कल्याण करें।।5।।

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥६॥


जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्याम वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण करें ।।6।
 

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥७॥

समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मुझ पर भी पड़े।।7।।


दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा अस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥८॥


भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।। -3.58


इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥९॥

विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।। - 4.25


गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०॥

जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।। -4.49


श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र​यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥११॥


हे देवी । शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।। - 5.10


नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥१२॥


कमल के समान कमला देवी को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सहोदरी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है। ।।12।। - 5.26


नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥१३॥


कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी ! आप सम्पतिव सम्पुर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हो, , साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा हर लेती होमुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।13।। - 5.44


नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥१४॥

जिनकी कृपा दृष्टि के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।14।। -6.06


नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥१५॥

हे विष्णु प्रिये! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।।15।। -6.21


स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥१८॥


जो लोग इस प्रकार प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस लोकमें महान गुणवान और अत्यंत भाग्यवान. होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।18।। - 6.40






सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय नन्दनानि, साम्राज्य दानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिता हरणोद्यतानि, मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।। 


यत्कटाक्ष समुपासना विधिः, सेवकस्य सकलार्थ सम्पदः ।
सन्तनोति वचनाङ्ग मानसैस्त्वां, मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ।। 


सरसिजनिलये सरोजहस्ते, धवलतमांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे, त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीदमह्यम् ।। 


दिग्घस्तिभिः कनक कुम्भमुखावसृष्ट, स्वर्वाहिनी विमलचारुजलाप्लुताङ्गीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष, लोकधिनाथ गृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।। 


कमले कमलाक्ष वल्लभे त्वं, करुणापूर तरङ्गितैरपाङ्गैः ।
अवलोकय मामकिञ्चनानां, प्रथमं पात्रमकृतिमं दयायाः ।। 


॥श्रीमदाध्यशङ्कराचार्यविरचितं श्री कनकधारा स्तोत्रम् समाप्तम्॥

बुधवार, 8 जुलाई 2015

॥ श्री सूर्यमण्डलाष्टकम् ॥ Surya MandalaAshtakam


नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूती स्थिति नाश हेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे विरञ्चि नारायण शङ्करात्मन्‌॥ १॥
namaḥ savitre jagadekacakṣuṣe jagatprasūtī sthiti nāśa hetave |
trayīmayāya triguṇātma dhāriṇe virañci nārāyaṇa śaṅkarātman || 1||

यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं रत्नप्रभं तीव्रमनादि रूपम्‌।
दारिद्र्य दुखक्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ २॥
yanmaṇḍalaṁ dīptikaraṁ viśālaṁ ratnaprabhaṁ tīvramanādi rūpam |
dāridrya dukhakṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 2||


यन्मण्डलं देव गणैः सुपूजितं विप्रैः स्तुतं भावनमुक्ति कोविदम्‌।
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ३॥
yanmaṇḍalaṁ deva gaṇaiḥ supūjitaṁ vipraiḥ stutaṁ bhāvanamukti kovidam |
taṁ devadevaṁ praṇamāmi sūryaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 3||


यन्मण्डलं ज्ञान घनं त्वगम्यं त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्म रूपम्‌।
समस्त तेजोमय दिव्यरूपं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ४॥
yanmaṇḍalaṁ jñāna ghanaṁ tvagamyaṁ trailokya pūjyaṁ triguṇātma rūpam |
samasta tejomaya divyarūpaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 4||



यन्मण्डलं गुढ़मति प्रबोधं धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्‌।
यत्सर्व पाप क्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ५॥
yanmaṇḍalaṁ guṛhamati prabodhaṁ dharmasya vṛddhiṁ kurute janānām |
yatsarva pāpa kṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 5||


यन्मण्डलं व्याधि विनाश दक्षं यदृग्यजुः सामसु संप्रगीतम्‌।
प्रकाशितं येन भूर्भुवः स्वः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ६॥
yanmaṇḍalaṁ vyādhi vināśa dakṣaṁ yadṛgyajuḥ sāmasu saṁpragītam |
prakāśitaṁ yena bhūrbhuvaḥ svaḥ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 6||


यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति गायन्ति यच्चारण सिद्ध सङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ७॥
yanmaṇḍalaṁ vedavido vadanti gāyanti yaccāraṇa siddha saṅghāḥ |
yadyogino yogajuṣāṁ ca saṅghāḥ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 7||

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश्चकुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्कालकल्प क्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ८॥
yanmaṇḍalaṁ sarvajaneṣu pūjitaṁ jyotiścakuryādiha martyaloke |
yatkālakalpa kṣayakāraṇaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 8||

यन्मण्डलं विश्वसृजं प्रसीदमुत्पत्तिरक्षा प्रलय प्रगल्भम्‌।
यस्मिञ्जगत्संहरतेऽखिलं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ ९॥
yanmaṇḍalaṁ viśvasṛjaṁ prasīdamutpattirakṣā pralaya pragalbham |
yasmiñjagatsaṁharate’khilaṁ ca punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 9||

यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोरात्मा परं धाम विशुद्धतत्त्वम्‌।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्ये पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ १०॥
yanmaṇḍalaṁ sarvagatasya viṣṇorātmā paraṁ dhāma viśuddhatattvam |
sūkṣmāntarairyogapathānugamye punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 10||

यन्मण्डलं वेदविदोपगीतं यद्योगिनां योग पथानुगम्यम्‌।
तत्सर्व वेदं प्रणमामि सूर्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्‌॥ १२॥
yanmaṇḍalaṁ vedavidopagītaṁ yadyogināṁ yoga pathānugamyam |
tatsarva vedaṁ praṇamāmi sūryaṁ punātu māṁ tatsaviturvareṇyam || 12||

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