गुरुवार, 9 नवंबर 2017

हनुमान का पञ्चमुखी धारण करने की कथा

बजरंगबली को सकंटमोचन भी कहा जाता हैं और भगवान हनुमान ने हमेशा अपने नाम को सार्थक किया हैं।

Panchamukha - Sri Panchamukhi Hanuman - पंचमुखी हनुमान की कहानी, जानिए पंचमुखी क्यो हुए हनुमान - श्री पंचमुखी हनुमान रूप पांच चेहरों से बना रूप है जिसमे हर चेहरे का दर्शन कृपा देने वाला है


संकट चाहे शारीरिक हो या मानसिक, भगवान् हनुमान हमेशा उसका निवारण करने में समर्थ रहे हैं।

रामायण काल में हर कोई अपनी समस्या के निदान के लिए भगवान् हनुमान को ही याद करते  थे. ऐसा ही एक संकट, श्री हनुमान के स्वामी भगवान् राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण पर भी आया था, जिसका निवारण भी श्री हनुमान ने ही किया था।

बजरंगबलि अपनी स्वामी भक्ति के लिए जाने जाते हैं और रामायण का युद्ध भी श्रीराम की वानर सेना ने अगर जीता था तो उसमे हनुमान की बहुत बड़ी भूमिका थी. इसी युद्ध के दौरान भगवान् हनुमान ने अपने कई अवतारों में से एक “पंचमुखी हनुमान अवतार” भी धारण किया था।

लेकिन क्या वजह थी कि श्री हनुमान को पंचमुखी अवतार धारण करना पड़ा था?

रामायण की कथा के अनुसार जब भगवान् राम अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने रावण की लंका गए थे तब कई दिनो तक वहां युद्ध चला था. युद्ध में रावण अपना पक्ष कमज़ोर होता देख, अपने भाई अहिरावण को भी इस युद्ध में भाग लेने के लिए बुलाया था. इस युद्ध में रावण द्वारा अपने भाई को शामिल करने एक की यह वजह थी कि अहिरावण को मायावी शक्तियां प्राप्त थी और रावण इन्ही मायावी शक्तियों का इस्तेमाल कर के यह युद्ध जीतना चाहता था।

इस युद्ध में रावण अपने भाई अहिरावण की मायावी शक्तियों की मदद से श्रीराम की पूरी सेना को गहरी नींद में सुला कर श्री राम और लक्ष्मण का अपहरण कर लिया था और इसी मुर्छित अवस्था में अहिरावण,  श्रीराम और लक्ष्मण को पाताल लोक ले कर चला गया।

जब हनुमान को यह बात ज्ञात हुई तो वह तुरंत पाताल लोक पहुचें लेकिन पाताल लोक के द्वार रक्षक मकरध्वज ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया था. तब हनुमान ने मकरध्वज से युद्ध कर उसे परास्त किया और पातळ लोक के भीतर पहुचे।

वह पहुचते ही उन्होंने देखा कि माँ भवानी के सम्मुख भगवान् राम और लक्ष्मण मुर्छित अवस्था में पड़े थे और अहिरावण  श्री राम और लक्ष्मण के बलि की तैयारी कर रहा था. लेकिन उस पूजा स्थल में चारों दिशाओं में पांच दीपक जल रहे थे जिसे एक साथ भुझाने पर अहिरावण की मृत्यु हो सकती थी।

भगवान् हनुमान को यह बात ज्ञात होते ही उन्होंने अपना पंचमुखी हनुमान अवतार धारण किया जिसमे वराह मुख, नरसिंह मुख, गरुड़ मुख, हयग्रीव मुख और अंतिम हनुमान मुख थे जिनकी सहायता से उन्होंने एक साथ वह पाँचों दीपक भुझा कर अहिरावण की मृत्यु की थी और श्री राम और लक्ष्मण रक्षा की थी।


पञ्चमुखी रूप की शक्ति

पाँच मुँह से शोभित श्री हनुमान जी के रूप को पञ्च मुखी हनुमान कहते है। यह पञ्च मुख पांच दिशाओ और रूप को बताते है |

यह पांच मुख नरसिंह रूप, गरुड रूप, अश्व रूप, वानर रूप, वराह रूप है जिसमे तीन रूप भगवान् विष्णु के रूप है और अन्य वानर और अश्व का।

1- नरसिंह रूप : यह रूप दक्षिण दिशा की तरफ है पंचमुखी हनुमान का दक्षिण दिशा का मुख भगवान नृसिंह का है । इस रूप की भक्ति से सारी चिंता, परेशानी और डर दूर हो जाता है।

२- गरुड रूप : पश्चिमी मुख वाला है , जिसके दर्शन से संकट और परेशानिया दूर होती है ।

३- अश्व रूप : पंचमुखी हनुमान का पांचवा मुख आकाश की ओर दृष्टि वाला होता है। यह रूप अश्व यानी घोड़े के समान होता है। श्रीहनुमान का यह करुणामय रूप होता है, जो हर मुसीबत से रक्षा करने वाला माना जाता है।

४- वानर रूप : पूर्व दिशा की तरफ है जो बहुत तेजस्वी है और इनकी पूजा और दर्शन से शत्रु पराजित होते है।

५- वराह रूप : उत्तर दिशा का मुख है, जिसकी सेवा पूजन से ऐश्वर्य, यश,दीर्घ आयु व अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त होता है।

अत: सभी रूप सुखो को देने वाले है और पंचमुखी हनुमान जी की पूजा से सभी तरह के आर्थिक मानसिक सुख प्राप्त होते है।

इन रूपों की पूजा अर्चना के लिए आप पञ्चमुखी हनुमान मंत्र का जप करके सर्व कार्य को सिद्ध कर सकते है।

मेधा सूक्तं — Medha Suktam


Meaning:
Oṁ yaśchandasāmṛṣabho viśvarūpaḥ . Chandobhyo'dhyamṛtātsambabhuva . Sa mendro medhayā spṛṇotu . Amṛtasya deva dhāraṇo bhūyāsam . Śarīraṁ me vicarṣaṇam . Jihvā me madhumattamā . Karṇābhyāṁ bhūriviśruvam . Brahmaṇaḥ kośo'si medhayā pihitaḥ . Śrutaṁ me gopāya .
Oṁ śāntiḥ śāntiḥ śāntiḥ ..

May the universal form, exalted among the Vedas and born of the essence of the Vedas, bless me with wisdom. May I be blessed with the nectar of immortality. May my body become active. May my tongue speak sweetly. May my ears hear everything well. You are the repository of Brahman, and are hidden by the intellect. May my memory protect me. Om peace, peace, peace.

Medhā devī juṣamānā na āgād-viśvācī bhadrā sumanasyamāna .
Tvayā juṣṭā nudamānā durūktān bṛhadvadema vidathe suvīraḥ ..1..

O goddess of wisdom! You are pleased, all-pervading and have a peaceful mind. Bless us so that we may give up bad speech and speak well in an assembly like heroes.

Tvayā juṣṭa ṛṣirbhavati devi tvayā brahmāgataśrīruta tvayā .
Tvayā juṣṭaścitraṁ vindate vasu sā no juṣasva draviṇo na medhe ..2..

O goddess! Blessed by you one becomes a sage; like Brahma. Blessed by you one attains prosperity. Blessed by you one attains many treasures. Bless us with that wealth of intelligence.

Medhāṁ ma indro dadātu medhāṁ devī sarasvatī .
Medhāṁ me aśvinavavubhavadhattaṁ puṣkarasrajā ..3..

May Indra give me intelligence. May goddess Saraswati give me intelligence. May the two Ashwins, who wear garlands of lotuses, give me intelligence.

Apsarāsu ca yā medhā gandharveṣu ca yanmanaḥ .
Daivīṁ medhā sarasvatī sā māṁ medhā surabhirjuṣhatam̐̐ svāhā ..4..

May Saraswati, who is fragrant, bless me with the divine intelligence which is the wisdom of the Apsaras and the mind of the Gandharvas.

Ā māṁ medhā surabhirviśvarūpā hiraṇyavarṇā jagatī jagamyā .
Ūrjasvatī payasā pinvamānā sā māṁ medhā supratīkā juṣantām ..5..

May that Saraswati, who is intelligence personified, who is fragrant, who is all pervading, who has a golden complexion, who is the earth, who is accessible to all, who is full of vigour, who is overflowing with the nectar of knowledge, and who is beautiful; come to me and bless me with intelligence.

Mayi medhāṁ mayi prajāṁ mayyagnistejo dadātu .
Mayi medhāṁ mayi prajāṁ mayīndra indriyaṁ dadātu .
Mayi medhāṁ mayi prajāṁ mayi sūryo bhrājo dadātu ..6..

May Agni give me intelligence, people and vigour. May Indra give me intelligence, people and bodily power. May Surya give me intelligence, people and brilliance.

Oṁ haṁsa haṁsāya vidmahe paramahaṁsāya dhīmahi .
Tanno haṁsaḥ pracodayāt ..7..

We perceive the Hamsa that is the soul; we meditate on that Hamsa that is the supreme being.
May that Hamsa inspire us (to reach that goal).

Oṁ śāntiḥ śāntiḥ śāntiḥ ..
Om peace, peace, peace.

This hymn is found in the Taittiriya Aranyakam of the Krishna Yajurveda.
The Shanti Mantram preceding the hymn is found in Prapathaka 4 of Chapter 7.
The hymn itself is composed of Prapathakas 41-44 of Chapter 10.
Notes:

The given version is found in the Taittiriya Aranyakam. Other hymns, also called Medha Suktam can be found in Rigveda and Atharvaveda. This prayer is addressed to the Goddess of learning, Saraswati. It asks her to bless us so that we may become wise. Chanting this hymn daily improves memory, intelligence, grasping power and speaking capacity.

शनिवार, 16 सितंबर 2017

श्री हनुमान वडवानल स्रोत के जाप से तुरंत दर्शन देते हैं बजरंग बली


श्री हनुमान वडवानल स्रोत के जाप से बड़ी से बड़ी समस्या भी टल जाती है

श्री हनुमान वडवानल स्रोत का प्रयोग अत्यधिक बड़ी समस्या होने पर ही किया जाता है। इसके जाप से बड़ी से बड़ी समस्या भी टल जाती है और सब संकट नष्ट होकर सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। श्री हनुमान वडवानल स्रोत के प्रयोग से शत्रुओं द्वारा किए गए पीड़ा कारक कृत्या अभिचार, तंत्र-मंत्र, बंधन, मारण प्रयोग आदि शांत होते हैं और समस्त प्रकार की बाधाएं समाप्त होती हैं।


पाठ करने की विधि

शनिवार के दिन शुभ मुहूर्त में इस प्रयोग को आरंभ करें। सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर हनुमानजी की पूजा करें, उन्हें फूल-माला, प्रसाद, जनेऊ आदि अर्पित करें। इसके बाद सरसों के तेल का दीपक जलाकर लगातार 41 दिनों तक 108 बार पाठ करें। अंत में भगवान को प्रसाद चढ़ाएं तथा अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करें।


विनियोग
ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः,
श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं,
मम समस्त विघ्न-दोष-निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे
सकल-राज-कुल-संमोहनार्थे, मम समस्त-रोग-प्रशमनार्थम्
आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त-पाप-क्षयार्थं
श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये।

ध्यान
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये।।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम
सकल-दिङ्मण्डल-यशोवितान-धवलीकृत-जगत-त्रितय
वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र
उदधि-बंधन दशशिरः कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र
अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार
सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार-ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद
सर्व-पाप-ग्रह-वारण-सर्व-ज्वरोच्चाटन डाकिनी-शाकिनी-विध्वंसन
ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दुःख
निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन
भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर
चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर,
माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस
भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हां
ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं
ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां
शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर
आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय
शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय
प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन
परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु
शिरः-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय
नागपाशानन्त-वासुकि-तक्षक-कर्कोटकालियान्
यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते
राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र
पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय
नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा।
।।इति विभीषणकृतं हनुमद् वडवानल स्तोत्रं।।

Anjana Sutha Stotram

Hauman (Anjana sutha) Stotram
[Prayer addressed to Hanuman]

[Here is a great and rare prayer addressed to Lord Hanuman as son of Anjana.]

1. Sukhekadhaam-bhushnam, Manoja garva-khandanam,
Anathmadhi-vigarhanam, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, to whom the mace looks like an ornament,
Who berates all who are proud and, Punishes those who have not realized Their self

2. Bhavam-budhititushrame, Susevyamana-madbutam,
Shiva-avatarinam-param, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, who assists us to cross the sea of life,
Who serves well in a wonderful manner and Who was born by the grace of Lord Shiva

3. GunakaramKripakaram, Sushantidam-Yashachyakaram,
Nijatambuddhi-dayakam, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana,who does good and showers mercy,
Who is peace personified grants fame and gives true spiritual wisdom.

4. SadaivDhusta-Bhanjanam, Sada-sudharva-vardhanam,
Mumuksha-Bhaktaranjam,Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, who always destroys bad people,
Who always increases courage to do good and who enjoys the devotion of realised souls.

5. Suramapada-sevinam, Suramanama-gayinam,
Suramabhakti-dayinam, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, who serves the feet of Lord Rama,
Who grants us devotion to Lord Rama and always sings the name of Lord Rama.

6. Virakta-mandala-dhipam, Sadatma-vitsusevinam,
Subhakta-vrundvandanam, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana who is the chief of those who have given up ali,
Who is served by all those who are good souls and Who is saluted by crowds of great devotees

7. Vimukti-vigna-nashakam, Vimukti-bhakti-dayikam,
Maha-virakti-karakam, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, Who removes roadblocks on way to salvation,
Who Grants us devotion leading to salvation and creates us great sense of detachment.

8. Sukhemya deva madvayam, Brihut-meva-tatsvayam,
Itihi-bodhi-kamgurum, Bhajeham-anjani-sutam

I sing about the son of Anjana, who is the God who blesses us with comfort,
Who by himself is very great and is the teacher who gives us wisdom.

9. Virakti-mukti-dayakam, Imam-stavan-supavanam,
Pathantiye-samadarat-na-sansaranti-te-dhruvam

If one reads with great devotion, this holy prayer,
Which grants detachment and devotion,
Would he not be Definitely remembered with great respect?

बुधवार, 14 जून 2017

वट सावित्री व्रत 2018: जानें कथा और महत्व के बारे में

वट सावित्री व्रत

यूं तो भारतवर्ष में कर्इ व्रत-त्यौहार मनाए जाते है लेकिन इनमें से कुछ एेसे व्रत है जो आदर्श नारीत्व के प्रतीक के रूप में जाने जाते है। आैर इन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत। ये व्रत हर विवाहिता के लिए अहम माना जाता है। जिसके तहत विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए ये व्रत रखती है। हालांकि इस व्रत को लेकर एक निश्चित तिथि नहीं है। यानि कुछ पुराणों में जहां ये व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को करना बताया गया है वहीं कर्इ जगह वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को करने का विधान है। लेकिन दोनों का उदेश्य एक समान है, सौभाग्य की वृद्घि। तो आइए जानते है वट सावित्री व्रत की कथा आैर इससे जुड़े विभिन्न पहलूआें के बारे मेंः

वट सावित्री व्रत 2017 तारीख:
25 मर्इ, गुरूवार

वट सावित्री व्रत कथाः
ये कथा सावित्री आैर सत्यभाम की है। सावित्री एक संपन्न राजा की बेटी थी जबकि सत्यवान बहुत ही दरिद्रतापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा होता है क्यूंकि उसके पिता का राजपाट सब कुछ छिन लिया जाता था। उसके माता-पिता के आंखों की रोशनी भी चली जाती है। इस कारण वो एक आम इंसान की तरह जिंदगी व्यतीत करते है। जब सावित्री आैर सत्यवान के विवाह की बात चलती है तो नारद मुनि आकर सावित्री के पिता को बताते है कि वे सत्यवान के साथ अपनी पुत्री का विवाह ना करें क्यूंकि सत्यवान अल्पायु है। लेकिन इसके बावजूद सावित्री की जिद के कारण वे इन दोनों का विवाह कर देते है। नारदजी द्वारा सत्यवान की मृत्यु के लिए बताए गए दिन में जब चार दिन शेष बचते है तभी से सावित्री व्रत रखने लगती है। नियत दिन आने पर सत्यवान पेड़ काटने के लिए जंगल जाता है, तब सावित्री भी उसके साथ चल देती है। जैसे ही सत्यवान पेड़ पर चढ़ता है कि उसके सिर में असहनीय दर्द होने लगता है आैर वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट जाता है।


कुछ देर बाद साक्षात यमराज अपने दूतों के साथ वहां पहुंचते है। आैर सत्यवान के जीवात्मा को लेकर वहां से जाने लगते है, सावित्री भी उनके पीछे-पीछे लगती है। यमराज सावित्री को पीछे आने के लिए मना करते है लेकिन सावित्री कहती है कि जहां तक मेरे पति जाएंगे वहां तक मुझे जाना चाहिए। इस पर यमराज प्रसन्न होते है आैर सावित्री को काेर्इ वरदान मांगने को कहते है सावित्री उनसे अपने सास-ससुर की नेत्र-ज्योति वापिस मांगती है। इस पर यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ़ने लगते है। लेकिन फिर भी सावित्री उनके पीछे-पीछे चलती रहती है, इस पर यमराज उसे फिर से वर मांगने को कहते है तो सावित्री कहती है कि मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए। यमराज तथास्तु कहकर उसे लौट जाने को कहते है। लेकिन फिर भी सावित्री उनके पीछे-चलती रहती है। यमराज उसे एक आैर वर मांगने को कहते है तो सावित्री कहती है कि मैं सत्यवान के साै पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। सावित्री की मनोकामना सुनकर यमराज का दिल पिघल जाता है आैर वे सावित्री की मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद देते है। इसके बाद सावित्री उसी वट वृक्ष्र के पास वापिस लौटती है, जहां सत्यवान में पुनः प्राणों का संचार होता है आैर वो उठकर बैठ जाता है। इस तरह सावित्री को उसका सुहाग वापिस मिल जाता है आैर वो उसके साथ सुखद ग्रहस्थ जीवन बिताती है।


वट सावित्री व्रत की पूजा विधिः

सबसे पहले व्रत करने वाली महिलाएं सुबह उठकर नित्य दिनचर्या से निवृत्त होकर शुद्घ जल से स्नान करें। जिसके बाद नए वस्त्र धारणकर सोलह श्रृंगार करें। फिर वट वृक्ष के नीचे जाकर आसपास की जगह को साफ आैर स्वच्छ कर वहां सत्यवान आैर सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। जिसके बाद सिंदूर, चंदन, पुष्प, रोली, अक्षत इत्यादि प्रमुख पूजन सामग्री से पूजन करें। फिर लाल कपड़ा, फल आैर प्रसाद चढ़ाए। इसके पश्चात धागे को बरगद के पेड़ में बांधकर जितना  संभव हो सकें उतनी बार परिक्रमा करें। फिर सावित्री-सत्यवान की कथा सुनें आैर ब्राहमण या जरूरतमंद को दान करें। जिसके बाद अपने-अपने घर लौट जाए आैर घर पहुंचकर पति का आशीर्वाद लें। व्रत शाम को खोलें।


वट वृक्ष की पूजा का महत्वः

भारतीय संस्कृति में कर्इ वृक्षों में भगवान का वास माना जाता है आैर इनकी पूजा विशिष्ट फल देने वाली मानी जाती है। इन्हीं में से एक है ‘बरगद का पेड़’ जिसे ‘वट वृक्ष’ भी कहा जाता है। पुराणों में वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का वास माना गया है। इसके नीचे बैठकर किसी भी प्रकार का पूजन करने, कथा सुनने या कोर्इ अन्य धार्मिक कार्य करने से शुभ फल मिलते है। इस वृक्ष में लटकी जटाआें को शिव की जटाएं मानी जाती है।

॥ सर्वरोगनाशक श्रीसूर्यस्तवराजस्तोत्रम् ॥

विनियोगः -

ॐ श्री सूर्यस्तवराजस्तोत्रस्य श्रीवसिष्ठ ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । 
श्रीसूर्यो देवता । सर्वपापक्षयपूर्वकसर्वरोगोपशमनार्थे पाठे विनियोगः ।

 ऋष्यादिन्यासः - 
श्रीवसिष्ठऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे । श्रीसूर्यदेवाय नमः हृदि । सर्वपापक्षयपूर्वकसर्वरोगापशमनार्थे पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ । 

ध्यानं - 

ॐ रथस्थं चिन्तयेद् भानुं द्विभुजं रक्तवाससे । 
दाडिमीपुष्पसङ्काशं पद्मादिभिः अलङ्कृतम् ॥ 

मानस पूजनं एवं स्तोत्रपाठः - 

ॐ विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः । 
लोकप्रकाशकः श्रीमान् लोकचक्षु ग्रहेश्वरः ॥ 
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा । 
तपनः तापनः चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः ॥ 
गभस्तिहस्तो ब्रध्नश्च सर्वदेवनमस्कृतः । 
एकविंशतिः इत्येष स्तव इष्टः सदा मम ॥ 

॥ फलश्रुतिः ॥ 

 श्रीः आरोग्यकरः चैव धनवृद्धियशस्करः । 
स्तवराज इति ख्यातः त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ॥ 
यः एतेन महाबहो द्वे सन्ध्ये स्तिमितोदये । 
स्तौति मां प्रणतो भूत्वा सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥ 
कायिकं वाचिकं चैव मानसं यच्च दुष्कृतम् । 
एकजप्येन तत् सर्वं प्रणश्यति ममाग्रतः ॥ 
एकजप्यश्च होमश्च सन्ध्योपासनमेव च । 
बलिमन्त्रोऽर्घ्यमन्त्रश्च धूपमन्त्रस्तथैव च ॥ 
अन्नप्रदाने स्नाने च प्रणिपाति प्रदक्षिणे । 
पूजितोऽयं महामन्त्रः सर्वव्याधिहरः शुभः ॥  
एवं उक्तवा तु भगवानः भास्करो जगदीश्वरः । 
आमन्त्र्य कृष्णतनयं तत्रैवान्तरधीयत ॥ 
 साम्बोऽपि स्तवराजेन स्तुत्वा सप्ताश्ववाहनः । 
पूतात्मा नीरुजः श्रीमान् तस्माद्रोगाद्विमुक्तवान् ॥ 

 भगवान् सूर्यनामावली 

१. विकर्तन २. विवस्वान् ३. मार्तण्ड ४. भास्कर ५. रवि ६. लोकप्रकाशक ७. श्रीमान् ८. लोकचक्षु ९. ग्रहेश्वर १०. लोकसाक्षी ११. त्रिलोकेश १२. कर्ता १३. हर्ता १४. तमिस्रहा १५. तपन १६. तापन १७. शुचि १८. सप्ताश्ववाहन १९. गभस्तिहस्त २०. ब्रघ्न ( ब्रह्मा ) २१. सर्वदेवनमस्कृत इति ।

पुष्य नक्षत्र पर करें ये काम, कार्य सिद्धि के साथ मिलेगी स्थायी समृद्धि

हिन्दू धर्म ग्रंथों में पुष्य नक्षत्र को सबसे शुभकारक नक्षत्र कहा जाता है। पुष्य का अर्थ होता है कि पोषण करने वाला और ऊर्जा-शक्ति प्रदान करने वाला नक्षत्र। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति हमेशा ही लोगों की भलाई व सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे जातक अपनी मेहनत और साहस के बल पर जिंदगी में तरक्की प्राप्त करते हैं। मान्यता है कि इस शुभ दिन पर संपत्ति और समृद्धि की देवी माँ लक्ष्मी का जन्म हुआ था। जब भी गुरुवार अथवा रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र आता है तो इस योग को क्रमशः गुरु पुष्य नक्षत्र और रवि पुष्य नक्षत्र के रूप में जाना जाता है। यह योग अक्षय तृतीया, धन तेरस, और दिवाली जैसी धार्मिक तिथियों की भांति ही शुभ होता है। कहते हैं कि इस दिन माँ लक्ष्मी घर में बसती है और वहां एक लंबे समय तक विराजती है इसीलिए, इस यह घड़ी पावन कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का स्वभाव फलप्रदायी और ध्यान रखने वाला है। पुष्य नक्षत्र के दौरान किए जाने वाले कार्यों से जीवन में समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन ग्रहों के अनुकूल स्थितियों में भ्रमण कर रहे होने से वे आपके जीवन में शांति, संपत्ति और स्थायी समृद्धि लेकर आते हैं। क्या वर्ष 2017 में आपके जीवन में समृद्घि रहेगी ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें 2017 विस्तृत वार्षिक रिपोर्ट।  

वैदिक ज्योतिष में महात्मय:
हमारे वैदिक ज्योतिष में बारह राशियों में समाविष्ट होने वाले 27 नक्षत्रों में आठवें नक्षत्र ‘पुष्य’ को सबसे शुभ नक्षत्र कहते हैं। इसी नक्षत्र में गुरु उच्च का होता है। देवों के आशीर्वाद से पुरस्कृत इस नक्षत्र के देवता बृहस्पति और दशा स्वामी शनि हैं। कर्क राशि के अंतर्गत समाविष्ट होने से इस नक्षत्र के राशिधिपति चंद्र हैं। इस प्रकार से गुरु व चंद्र के शुभ संयोग इस नक्षत्र में होने से किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए पुष्य नक्षत्र श्रेष्ठ माना जाता है। क्या आपकी जन्मकुंडली में महत्वपूर्ण ग्रह अच्छी स्थिति में विराजमान है ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें जन्मपत्री रिपोर्ट।

जीवन में समृद्धि का आगमनः
पुष्य नक्षत्र का दशा स्वामी शनि होने से इस नक्षत्र के दरमियान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है। पुष्य नक्षत्र में किए गए कामों को हमेशा सफलता व सिद्धि मिलती है। इसलिए, विवाह को छोड़कर हर एक कार्यों के लिए पुष्य नक्षत्र को शुभ माना जाता है। दिवाली के दिनों में चोपड़ा खरीदने के लिए व्यापारीगण पुष्य नक्षत्र को विशेष महत्व देते हैं। इसके अलावा, वर्ष के दौरान भी पुष्य नक्षत्र में जब गुरु पुष्यामृत योग बन रहा हो तब सोने, आभूषण और रत्नों को खरीदने की प्रथा सदियों से प्रचलित है।

पुष्य नक्षत्र में किए जाने वाले मांगलिक कार्य:

– इस मंगलकर्ता नक्षत्र के दौरान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है।
– ज्ञान और विद्याभ्यास के लिए पावन दिन।
– इस दिन आध्यात्मिक कार्य किए जा सकते हैं।
– मंत्रों, यंत्रों, पूजा, जाप और अनुष्ठान हेतु शुभ दिन।
– माँ लक्ष्मी की उपासना और श्री यंत्र की खरीदी करके जीवन में समृद्धि ला सकते हैं।
– इस समय के दौरान किए गए तमाम धार्मिक और आर्थिक कार्यों से जातक की उन्नति होती है।

गुरु,शनि और रवि पुष्य नक्षत्र :
गुरुवार और रविवार के दिन पड़ने वाले पुष्य योग को गुरु पुष्य और रवि पुष्य नक्षत्र कहते हैं। गुरु पुष्य और रवि पुष्य योग सबसे शुभ माने जाते हैं। इस समय के दौरान छोटे बालकों के उपनयन संस्कार और उसके बाद सबसे पहली बार विद्याभ्यास के लिए गुरुकुल में भेजा जाता है। इसका ज्ञान के साथ अटूट संबंध है एेसा कह सकते हैं। इसके अलावा, शनि व गुरु के संबंध को उत्तम ज्ञान की युति कहते हैं। पंचाग को देखकर हर एक कार्य करना चाहिए।

पुष्य नक्षत्रः मांगलिक कार्यों से शुभ फलों की प्राप्ति का पावन पर्वः

– इस दिन पूजा या उपवास करने से जीवन के हर एक क्षेत्र में सफलता की प्राप्ति होती है।
– कुंडली में विद्यमान दूषित सूर्य के दुष्प्रभाव को घटाया जा सकता है।
– इस दिन किए कार्यों को सिद्धि व सफलता मिलती है।
– धन का निवेश लंबी अवधि के लिए करने पर भविष्य में उसका अच्छा फल प्राप्त होता है।
– काम की गुणवत्ता और असरकारकता में भी सुधार होता है।
– इस शुभदायी दिन पर महालक्ष्मी की साधना करने से उसका विशेष व मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

पुष्य नक्षत्र को ब्रह्याजी का श्राप मिला था, इसलिए यह नक्षत्र शादी-विवाह के लिए वर्जित माना गया है। पुष्य नक्षत्र में दिव्य औषधियों को लाकर उनकी सिद्धि की जाती है। जीवन में संपत्ति और समृद्धि को आमंत्रित करने के लिए पुष्य नक्षत्र व्यक्ति को पूरा अवसर प्रदान करता है। इस दिन किए गए सभी मांगलिक कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण होते हैं।

शुक्रवार, 2 जून 2017

ऐसे करेंग भोजन तो होगी उन्नति

🍎 ऐसे करेंग भोजन तो होगी उन्नति

पुराणों के अनुसार अन्न में अन्नपूर्णा मां का वास माना गया है। सनातन धर्म में कोई भी हिंदू भोजन खाने से पूर्व उसे प्रणाम करता है। ताकि जो भोजन करने जा रहे हैं, वह स्वास्थ्य के लिए हितकर हो। 
जो व्यक्ति प्रतिदिन भोजन से पहले गौ माता को ग्रास अर्पित करता है, वह सत्यशील प्राणी श्री, विजय और ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति प्रात:काल उठने के बाद नित्य गौ माता के दर्शन करता है, उसकी अकाल मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती, यह बात महाभारत में बहुत ही प्रामाणिकता के साथ कही गई है। 

हिंदू धर्म के अनुसार मानव शरीर वायु, अग्नि, जल, आकाश और पृथ्वी से मिलकर बना है और हाथों की अंगुलियां इन तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। जब इन पांचों तत्वों के माध्यम से भोजन ग्रहण किया जाता है अर्थात चम्मच की बजाय हाथ से खाना खाया जाता है तो ये हमारे खाने में अवशोषित होकर हमें निरोगी बनाते हैं।

जो कोई प्रतिदिन पूरे संवत्-भर मौन रह कर भोजन करते हैं, वे हजारों-करोड़ों युगों तक स्वर्ग में पूजे जाते हैं अर्थात जो व्यक्ति संतोष के साथ जो मिले उसी पर संतुष्ट रहता है, उसे पृथ्वी पर ही स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। उसे न तो कोई दुख होता है और न ही कोई कष्ट। 

प्राचीन परम्परा के अनुसार खाना हमेशा जमीन पर पालथी मारकर ही खाना चाहिए। ऐसा करने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है। खड़े होकर अथवा मेज कुर्सी पर बैठकर खाना खाने से शरीर में अनेक विकार पैदा हो जाते हैं। इस बात को हमेशा याद रखें कि भोजन करने के बाद क्रोध नहीं करना चाहिए और न ही भोजन के तुरंत बाद व्यायाम करना चाहिए, इससे स्वास्थ्य को नुकसान होता है।🍋


शनिवार, 13 मई 2017

पुराणों के अनुसार विवाह के प्रकार

यथाशक्ति अलंकृत कर अपनी कन्या प्रदान करना ब्रह्म विवाह

अपने घर पर वर को बुलाकर यथाशक्ति अलंकृत कर अपनी कन्या प्रदान करना 'ब्रह्म विवाह' है। इस विधि से विवाहित स्त्री-पुरुष से उत्पन्न होने वाली संतान दोनों कुलों के 21 पीढ़ियों को पवित्र करती हैं। आज के समय में बहु प्रचिलित अरेन्ज्ड मैरेज ब्रह्म विवाह का ही स्वरुप है।

तुम इस कन्या के साथ धर्म का आचरण करो


यज्ञ दीक्षित ऋत्विक ब्राह्मण को अपनी कन्या देना जय विवाह है तथा वर से एक जोड़ा गौ (गाय और बैल का एक जोड़ा) लेकर उसको कन्या प्रदान करना आर्ष विवाह कहां जाता है। इस के प्रथम (ब्रह्म विवाह) विधि से विवाहित स्त्री-पुरुष से उत्पन्न पुत्र अपनी प्रथम की साथ तथा बाद की साथ इस तरह 14 पीढ़ियों को पवित्र करता है आर्ष विधि के विवाह से उत्पन्न पुत्र तीन पूर्व तथा तीन बाद की इस तरह 6 पीढ़ियों को पवित्र करता है।

यज्ञ दीक्षित ऋत्विक ब्राह्मण को अपनी कन्या देना जय विवाह है


'तुम इस कन्या के साथ धर्म का आचरण करो' यह कह कर विवाह की इच्छा रखने वाले वर को पिता के द्वारा जब कन्या प्रदान की जाती है तब ऐसे विवाह को काय विवाह (प्रजापत्य विवाह) कहते हैं इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र अपने सहित पूर्व की छह तथा बाद की 6 पीढ़ियों इस तरह कुल 13 पीढ़ियों को पवित्र करता है।

प्रेम विवाह गान्धर्व विवाह का ही स्वरुप है
'तुम इस कन्या के साथ धर्म का आचरण करो' यह कह कर विवाह की इच्छा रखने वाले वर को पिता के द्वारा जब कन्या प्रदान की जाती है तब ऐसे विवाह को काय विवाह (प्रजापत्य विवाह) कहते हैं

कन्या के पिता या बंधु-बांधव अथवा कन्या को ही यथाशक्ति धन देकर यदि कोई वर उससे विवाह करता है तो इस विवाह को 'असुर विवाह' और वर एवं कन्या के बीच पहले ही पारस्परिक सहमति हो जाने के बाद जो विवाह होता है उसको गांधर्व विवाह कहते हैं। प्रेम विवाह गान्धर्व विवाह का ही स्वरुप है।  कन्या की इच्छा नहीं है तब भी बलात युद्ध आदि के द्वारा अपहृत उस कन्या के साथ विवाह करना 'राक्षस विवाह' है। स्वाप (कन्या की मदहोशी, गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) अवस्था में अपहरण कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना या उसके साथ जो विवाह किया जाता है उसको 'पैशाच विवाह' कहते हैं।

वर एवं कन्या के बीच पहले ही पारस्परिक सहमति हो जाने के बाद जो विवाह होता है उसको गांधर्व विवाह कहते हैं
वर एवं कन्या के बीच पहले ही पारस्परिक सहमति हो जाने के बाद जो विवाह होता है उसको गांधर्व विवाह कहते हैं


इन उपर्युक्त आठ विवाह में प्रथम चार प्रकार के विवाह अर्थात ब्रम्ह, दैव, आर्ष और प्रजापत्य विवाह ब्राह्मण वर्ण के लिए उपयुक्त है। गांधर्व विवाह तथा राक्षस विवाह क्षत्रिय वर्ण के लिए उचित है। असुर विवाह वैश्य वर्ण और अंतिम गर्हित पैशाच विवाह शूद्र वर्ण के लिए उचित माना गया है।

कन्या की मदहोशी, गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि अवस्था में अपहरण कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना या उसके साथ जो विवाह किया जाता है उसको पैशाच विवाह कहते हैं
कन्या की मदहोशी, गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि अवस्था में अपहरण कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना या उसके साथ जो विवाह किया जाता है उसको 'पैशाच विवाह' कहते हैं।

सोमवार, 8 मई 2017

अहिल्या का उद्धार

एक दिन मुनि महानंद ने अपने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, क्या श्री रामचंद जी के विषय में यह कथन सही है कि उन्होंने ऋषि गौतम की शापित पत्नी अहिल्या को अपने चरण कमलों की ठोकर मार कर उनका उद्धार किया था?' इस पर गुरु मुस्कराए, फिर बोले 'वत्स! यह तो जनश्रुति है, सत्य नहीं। राम जैसे मर्यादा पुरुष क्या किसी स्त्री को अपने पैर से ठोकर मार सकते थे? ठोकर मारना तो दूर, राम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस कथा के प्रतीकार्थ को समझने की जरूरत है। श्रीराम पृथ्वी विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने इसी ज्ञान का प्रयोग कर प्रजा के उत्थान का प्रयास किया था। लेकिन यह कथा दूसरे ही रूप में प्रचलित हो गई।

अहिल्या का उद्धार

वत्स महानंद, यहां अहिल्या का अर्थ पृथ्वी है, ऐसी भूमि जो उपजाऊ तो हो परंतु उसमें अन्न उत्पन्न नहीं किया जा रहा हो। यानी जो भूमि वज्र तुल्य पड़ी हो। वस्तुत: वज्र तुल्य बेकार पड़ी पृथ्वी को अहिल्या कहा जाता है। ' गुरु जी ने स्पष्ट करते हुए कहा, 'हे महानंद! प्रभु श्रीरामचंद सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या त्याग कर वनवास जाते हुए जब निषाद राज्य सीमा में पहुंचे तो निषादराज ने तीनों का हार्दिक स्वागत करते हुए श्री रामचंद से प्रार्थना की, 'महाराज, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो कृपया आदेश दें।'

श्री रामचंद ने स्वागत से विभोर होकर निषादराज से कहा, 'हे प्रिय बंधु निषादराज! यह जो बेकार पड़ी कृषि योग्य भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ, इसके लिए अपने कृषकों को आदेश दो कि वे इस वज्र तुल्य भूमि को पानी और खाद देकर, जोतकर उपजाऊ बनाएं तथा इसमें अन्न उत्पन्न करें।' निषादराज ने रामचंदजी का आदेश स्वीकार किया। निषाद राज्य के किसानों और श्रमिकों ने अत्यंत मेहनत से काम किया और देखते ही देखते वह भूमि लहलहा उठी। तो इस तरह रामचंद के कहने पर उस वज्र तुल्य पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'

महानंद एक आख्यान की इस व्याख्या से संतुष्ट हुए। उन्होंने कहा, 'इस कथा में निहित इस संदेश को जन-जन तक फैलाने की आवश्यकता है।'

ॐ aum, om

aum, also om (Devanagari: ॐ) is the most sacred syllable in Hindu Dharma, first coming to light in the Vedic Tradition. The character is a composite of three different letters of the Sanskrit alphabet. The syllable is sometimes referred to as the udgitha or pranava mantra (primordial mantra); not only because it is considered to be the primal sound, but also because most mantras begin with it. In Devanagari it is written ॐ, and in Tibetan script ༀ.

"Aum" is the most sacred syllable often spoken during the practice of any Hindu rites. It is a holy character of the Sanskrit language, the language of God. The character is a composite of three different letters of the Sanskrit alphabet. Because of its significance this sacred syllable is spoken before any chants to show God we remember him. This sign in Hinduism also represents the whole universe.

The Significance of the Symbol ॐ

The symbol ॐ (aum, also called pranava), is the most sacred symbol in Hinduism. Volumes have been written in Sanskrit illustrating the significance of this mystic symbol. Although this symbol is mentioned in all the Upanishads and in all Hindu scriptures, it is especially elaborated upon in the Taittiriya Upanishad, Chandogya Upanishad and Mundaka Upanishad Upanishads.
The goal, which all Vedas declare, which all austerities aim at, and which humans desire when they live a life of continence, I will tell you briefly it is aum. The syllable aum is indeed Brahman. This syllable aum is the highest. Whosoever knows this symbol obtains all that he desires. This is the best support; this is the highest support. Whosoever knows this support is adored in the world of Brahman.
—Katha Upanishad I, ii, 15-17
The symbol of ॐ (aum) contains of three curves, one semicircle and a dot. The large lower curve symbolizes the waking state; the upper curve denotes deep sleep (or the unconscious) state, and the lower curve (which lies between deep sleep and the waking state) signifies the dream state. These three states of an individual’s consciousness, and therefore the entire physical phenomenon, are represented by the three curves. The dot signifies the Absolute (fourth or Turiya state of consciousness), which illuminates the other three states. The semicircle symbolizes maya and separates the dot from the other three curves. The semicircle is open on the top, which means that the absolute is infinite and is not affected by maya. Maya only affects the manifested phenomenon. In this way the form of aum symbolizes the infinite Brahman and the entire Universe.
Uttering the monosyllable ॐ, the eternal world of Brahman, One who departs leaving the body (at death), he attains the superior goal.
— Bhagavad Gita, 8.13


ॐ (AUM) — Origin

Found first in the Vedic scriptures of Hinduism, aum has been seen as the first manifestation of the unmanifest Brahman (the single Divine Ground of Hinduism) that resulted in the phenomenal universe. Essentially, all the cosmos stems from the vibration of the sound 'Aum' in Hindu cosmology. Indeed, so sacred is it that it is prefixed and suffixed to all Hindu mantras and incantations. It is undoubtedly the most representative symbol of Hinduism.
Although the ॐ symbol's left part, ऊ, which looks like a figure 3, looks like the uu vowel in the Devanagari script, specifically, when used as a syllable with no attached initial consonant, it is actually based on Brahmi version of ओ. The nasal sound is indicated by a chandrabindu.

Philosophy of AUM

Gods and Goddesses are sometimes referred to as Aumkar (or Omkar), which means form of Aum, thus implying that who are limitless, the vibrational whole of the cosmos. Ek Onkar, meaning 'one god' is a central tenet of Sikh religious philosophy. In Hindu metaphysics, it is proposed that the manifested cosmos (from Brahman) has name and form (nama-rupa), and that the closest approximation to the name and form of the universe is Aum, since all existence is fundamentally composed of vibration. (This concept of describing reality as vibrations, or rythmic waves, can also be found in quantum physics and super string theory, which describe the universe in terms of vibrating fields or strings.)
In advaita philosophy it is frequently used to represent three subsumed into one, a common theme in Hinduism. It implies that our current existence is mithya, or 'slightly lesser reality,' that in order to know the full truth we must comprehend beyond the body and intellect and intuit the true nature of infinity, of a Divine Ground that is imminent but also transcends all duality, being and non-being, that cannot be described in words. Within this metaphysical symbolism, the three are represented by the lower curve, upper curve and tail of the ॐ subsumed into the ultimate One, represented by the little crescent moon-shape and dot, known as chandrabindu. Essentially, upon moksha, mukti, samadhi, nirvana, liberation, etc. one is able not only to see or know existence for what it is, but to become it. In attaining truth one simply realizes fundamental unity; it is not the joining together of a prior manifold splitting. When one gains true knowledge, there is no split between knower and known: one becomes knowledge/consciousness itself. In essence, Aum is the signifier of the ultimate truth that all is one.
For the scriptural esoteric explanation of Aum see Mandukya Upanishad.
dvaita-advaita (Vaishnava) philosophies teach that 'Aum' is an impersonal sound representation of Vishnu/Krishna while Hari Nama is the personal sound representation. A represents Krishna, U Srimati Radharani and M jivas. According to Sridhara Svami the pranava has five parts: A, U, M, the nasal bindu and the reverberation (nada). Liberated souls meditate on the Lord at the end of that reverberation.
Examples of Three into One:
  • Creation (Brahma)- Preservation (Vishnu)- Destruction (Shiva) into Brahman
  • Waking- Dreaming- Dreamless Sleep into Turiya (transcendental fourth state of consciousness)
  • Rajas (activity, heat, fire)- Tamas (dullness, ignorance, darkness)- Sattva (purity, light, serenity/shanti) into Brahman
  • Body, Speech and Mind into Oneness
The Chandogya Upanishad (1.1.1-10) states,

"The udgitha is the best of all essences, the highest, deserving the highest place, the eighth."
"Aum" can be seen as Sri Ganesh, whose figure is often represented in the shape of Aum. He is thus known as Aumkar (Shape of Aum). Sri Nataraja, or the Hindu god 'Shiva' dancing his dance of destruction, is seen in that popular representation mirroring the image of Aum. It is said to be the most perfect 'approximation' of the cosmic existence within time and space, and therefore the sound closest to Truth.
"The First Word Om (Aum) It is also called Pranav because its sound emanates from the Prana (vital vibration), which feels the Universe. The scripture says "Aum Iti Ek Akşara Brahman" (Aum that one syllable is Brahman)."

The AUM Sound

"A - emerges from the throat, originating in the region of the navel U - rolls over the tongue M - ends on the lips A - waking, U - dreaming, M - sleeping It is the sum and substance of all the words that can emanate from the human throat. It is the primordial fundamental sound symbolic of the Universal Absolute.".
In fact, when correctly pronounced, or rather, "rendered", the "A" can be felt as a vibration that manifests itself near the navel or abdomen; the "U" can be felt vibrating the chest, and the "M" vibrates the cranium or the head. The abdominal vibration symbolises Creation; It is interesting that the "creative" or reproductive organs are also located in the lower abdomen. The vibration of the chest represents Preservation, which is also where the lungs are situated (the lungs sustain or preserve the body through breath). The vibration of the head is associated with Destruction or sacrifice, since all that gives up or destroys is first destroyed mentally. Hence, the entire cycle of the universe and all it contains is said to be symbolised in AUM.
Today, in all Hindu art and all over India and Nepal, 'Aum' can be seen virtually everywhere, a standard sign for Hinduism and a vast but economical storehouse for the deep mythology inherent in the world's oldest religion.
Notes the Chandogya Upanishad, "That syllable, is a syllable of permission; for, whenever we permit anything, we say Aum." However, this is seen by others as a myopic perspective because the same Hindu scriptures, the Upanishads, that aver this function also attribute to it the divine property of the source of the universe. Aum is seen as the source of existence as we know it within the causal dimensions of time and space, and thus affirmatory meanings in languages are a natural progression. Aum is not only affirmation, but negation, and transcends both.
The AUM sound is sometimes called "the 3-syllable Veda". The third syllable arises because in Devanagari and similar alphabets, a consonant at the end of a word is sometimes written as a separate consonant letter with the virama "no vowel" sign, and this combination is treated as a syllable when talking about Devanagari writing rather than about phonetics.
The Sanskrit word omkāra (from which came Punjabi onkār, etc), literally "OM-maker", has two families of meanings:-
Brahma (god) in his role as creator, and thus a word for "creator". Writers' term for the OM sign.
The use of the universal AUM sound can be found on every nearly continent and in many different cultures. The sound is unique to every individual: hence it can only be described by how it feels. Below is a secular guide to making the sound:
An individual's "Aum" is the sound that can be held steady the longest per breath for the longest consecutive sequence of breaths. It is called "aum" in every culture that is aware of it because it sounds like that in all humans. The lower pitches are more suited because they require less muscular contraction of the abdomen, leading to lower rates of oxygen consumption, allowing for longer time between breaths. The Aum is the exact sound that is easiest for the individual to produce.
Once the minimization of oxygen consumption occurs (by minimization of muscular exertion), the outflow of air will be steady and quite sensitive to any forces that alter the amount of pressure in the chest cavity. One of the most notable consequences of this is that the rythmic contractions of the heart become audible within the Aum.
Thus, by the use of Aum:
  • one can easily hear their own heart.
  • a person can modify the pace of their heart.
  • a group of people can synchronize their heartbeats.

भाग्य सूक्तं - Bhagya Suktam Vedic Hymn

ॐ प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रा वरुणा प्रातरश्विना ।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रँ हुवेम ॥

Aum praataragniṃ praatarindraṃ havaamahe praatarmitraa varuṇaa praatarashvinaa |
praatarbhagaṃ pooṣhaṇaṃ brahmaṇaspatiṃ praatass somamuta rudraṃ huvem ||

At dawn, we invoke Agni (the fire deity), Indra (the rain deity), Mitrā (the Sun) and Varuṇa (the deity of the ocean); the Aśvins (the celestial physician twins), Bhaga (the deity of wealth), Puṣan (the Sun as the deity of nutrition), Bṛahmaṇaspati (the preceptor of the gods), Soma (the Moon), and Rudra (the god of dissolution)

हम प्रात: के समय पर अग्नि, वरुण, इन्द्र, मित्र, अश्विन कुमार, भग, पूष, ब्रह्मनास्पति, सोम और रूद्र का आवाहन करते हैं



प्रातर्जितं भगमुग्रँ हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता । 
आद्ध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यंभगं भक्षीत्याह॥

Praatarjitaṃ bhagmugraṃ huvem vayaṃ putramaditeryo vidhartaa |
aadhrash chidyaṃ manya maanastu rashchidraajaa chid yaṃ bhagaṃ bhakṣhityaaha ||


We invoke at dawn, the fierce Bhaga, the son (manifestation) of Aditi (the Cosmic Power), who is the very sustainer of the creation. Whether a pauper, a busy person, or a king; everyone worships and contemplates upon Bhaga saying, 'I would worship Bhaga.'

हम शक्तिशाली, युद्ध में जीतने वाले भग का आवाहन करते हैं जिनके बारे में सोचकर राजा  भी कहते हैं की हमें भग दीजिये


भग प्रणेतर्भगसत्यराधो भगेमां धियमुदवददन्नः। 
भगप्रणो जनय गोभि-रश्वैर्भगप्रनृभि-र्नृवन्तस्स्याम ॥

bhagha praṇetarbhaga satyaraadho bhaghemaaṃ dhiyamudava dadannaḥ |
bhaga praṇo janaya gobhirashvairbhaga pranṛibhirnṛivantassyaam ||

O Bhaga! The great leader, and truth is your wealth. Bestow it upon us, and elevate our intellect and protect it. Bless us with cattle-wealth, horses, and descendants and followers.

हे भग हमारा मार्गदर्शन करें ,आपके उपहार अनुकूल हैं ,हमें ऐश्वर्य दीजिये हे भग! हमें घोडे {सवारी }, गाय और योद्धा वंशज दीजिये


उतेदानीं भगवन्तस्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्। 
उतोदिता मघवन् सूर्यस्य वयं देवानाँ सुमतौ स्याम ॥

utedaaneeṃ bhagavantasyaamot prapitv ut madhye ahnaam |
utoditaa maghavan sooryasya vayaṃ devaanaaṃ sumatau syaam ||

4. May we be blessed by Bhaga now (during this fire-ritual), and when the light approaches, or at midday. O Lord Indra! At sunset also, may we still find favor of the Sun, and other gods.

4. कृपा कीजिये कि अब हमें  सुख-चैन मिले , और जैसे जैसे दिन बढ़ता जाये , जैसे -जैसे दोपहर हो , शाम हो हम देव कृपा से प्रसन्न रहे


भग एव भगवाँअस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तस्स्याम। 
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीमि सनो भग पुर एता भवेह॥

bhaga eva bhagavaanastu devaastena vayaṃ bhagvantasyaam |
taṃ tvaa bhaga sarva ijjohaveemi sano bhaga pur etaa bhaveha ||

5. May Bhaga, (and) the gods be the possessor of good fortune, and through Him, may we may be blessed with good fortune by that god. Everyone including myself invite you to bring in good fortune. O Bhaga! Kindly lead us being present in the ritual.

5. हे भग आप परमानंद प्रदान करें और आपके द्वारा देव हमें प्रसन्नता से स्वीकार करें हे भग हम आपका आवाहन करते हैं ,आप यहाँ हमारे साथ आयें



समध्वरायोषसोऽनमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय। 
अर्वाचीनं वसुविदं भगन्नो रथमिवाश्वावाजिन आवहन्तु॥

samadhvaraayoshaso namanta dadhikraaveva shuchaye padaaya |
arvaacheenaṃ vasuvidaṃ bhaganno rathamivaaśhvaa vaajina aavahantu ||


6. May the presiding deities of the early morning-hour arrive here, like the horse that puts its foot in the place of Vedic ritual for establishing the fire altar. May they bring Bhaga, the Lord of wealth, as speedily as swift horses pulling a chariot

6. इस प्रकार प्रतिदिन भग यहाँ आयें {पवित्र स्थान जैसे दधिक्रावन }जैसे शक्तिशाली घोड़े रथ को खींचते हैं वैसे ही भग का यहाँ आवाहन  किया जाये


अश्वावतीर्गोमतीर्नउषासो वीरवतीस्सदमुच्छन्तु भद्राः।
घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीनायूयं पात स्वस्तिभिस्सदा नः॥

ashhvaavateergomateerna uṣhaaso veeravateess sadamuchchantu bhadraḥ |
ghṛitaṃ duhanaa vishvataḥ prapeenaa yūyaṃ paata swastibhissadaa naha||

May the presiding deities of the Dawn bless us with many horses and cattle, and plenty of milk and milk-products. May these auspicious gods bless us with good progeny, and nourish all life. May they proclaim auspiciousness in the place of worship. May they always ensure our good fortune

इस प्रकार कृतार्थ सुबह हमें प्राप्त हो हमें  हमें सुपुत्र, घोडे, पशु, दुग्ध और योधा रिश्तेदार  प्राप्त हो हे देव हमें अपने आशीर्वाद दीजिये


ॐ अवैध मृत्युम न अमृतम न आगम मैव सुतो नो अभै त्रुणोत ।
वर्णम वनस्पती रिभाभिनष्यी यथागम भयै सदा नस्च जिपदही ।।

परम प्रत्यो अन्पढे एवम धयस्ते श्वेतयो देवाय न आत ।
तत्क्षुस्मते ब्रह्मणे देव प्रवी विमानव प्रजा ग्म्य निसोमोद विनोद्: ।।

वातम प्राणम वन्सान्त्वा हावामहे प्रजापतिम्यो भुवन्श्य गोप: ।
स नो रुद्रो: स्त्राय धान्त्वाम त्रध्युम धधयो जीवा: धधा मुचिमहे ।।

अमृत प्रभु या धध: योग्यवस्य वृहश्पते अभिशस्त्रे न रुद्र: ।
मृत्यो हावा मश्मिना मृत्यो मस्मा देवानामने भि च गाच देवहि: ।।

परिगम धनम च मुचयम च देवा विश्वा शेषानम पृतभम पतीनअ्म ।
ब्रह्मा सदो च वेदमागा च यधमागा मधिय विक्रमस्य: ।।

सल्के न अग्निम दानभुतौ लोकौ स नै माहम ।
उपायो भोगयो रुध्रापी मृत्युम जराम्य्हम ।।

मा चिदो मृत्यो मा वधेर मा मे बलम चिदहो मा प्रमोसि: ।
प्रजाम मा मे रीरिष: समायु रुद्र निरक्ष सन्त्रा: हविषा विधेमा ।।

मा नो महान्त मुत मानो अर्ब्भकम्मन अक्ष्यन्त मुत मान उक्षितम ।
मा नो व्यधिम पितरम्मोत मातरम्मनम प्रियास्तनवो रुद्ररीरिष: ।।

मानस्तोके तनए मान आयौ मानो अश्वेषु रीरिश: ।
वीरन्मानो रुद्र भामितो वेधी: हविष्मन्त सदमित्वा हावामहे ।।


इस वैदिक सूक्त का पाठ कोई भी कर सकता है इसका पाठ करने से या इसे सुनना सौभाग्याकारी है
ऋग्वेद ७-४१ 

स्वप्न में गो दर्शन का फल

स्वप्न में गौ अथवा सांड के दर्शन से कल्याण लाभ एवं व्याधि नाश होता है, इसी प्रकार स्वप्न में गौ के थन को चूसना भी श्रेष्ठ माना गया है।

इसी प्रकार स्वप्न में गौ के थन को चूसना भी श्रेष्ठ माना गया है।


स्वप्न में गौ का घर में ब्याना, बैल अथवा सांड की सवारी करना, तलाक के बीच में घृत मिश्रित खीर का भोजन भी उत्तम माना गया है। इनमें से घी सहित खीर का भोजन तो राज्य प्राप्ति का सूचक माना गया है। किसी प्रकार स्वप्न में ताजे दुहे  हुए  फेन सहित दुग्ध का पान करने वाले को अनेक भोगों  की तथा दही के देखने से प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। जो बैल अथवा साड़ से युक्त रथ पर स्वप्न में अकेला सवार होता है और उसी अवस्था में जागता है, उसे शीघ्र ही धन मिलता है।



स्वप्न में दही मिलने से धन की भी मिलने से तथा दही खाने से यश की प्राप्ति निश्चित है। इसी प्रकार यात्रा आरंभ करते समय दही अथवा दूध का दिखना शुभ शकुन माना गया है। स्वप्न में दही भात का भोजन करने से कार्य सिद्धि होती है तथा बैल पर चढ़ने से द्रव्य लाभ होता है एवं व्याधि से छुटकारा मिलता है इसी प्रकार स्वप्न में सावन सांड अथवा गौ का दर्शन करने से कुटुंब की वृद्धि होती है। स्वप्न में सभी काली वस्तु का दर्शन निषेध माना गया है, केवल कृष्णा गौ का दर्शन शुभ होता है।

स्वप्न में सभी काली वस्तु का दर्शन निर्णय माना गया है केवल कृष्णा गौ का  दर्शन शुभ होता है

नवग्रह स्तोत्र - जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं

सूर्य को मैं प्रणाम करता हूं


जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं।
तमोरिसर्व पापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरं ।। (रवि)

जो जपा पुष्प के समान अरुणिमा  वाले महान तेज से संपन्न अंधकार के विनाशक सभी पापों को दूर करने वाले तथा महर्षि कश्यप के पुत्र हैं उन सूर्य को मैं प्रणाम करता हूं

दधिशंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवं।
नमामि शशिनं सोंमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।। (चंद्र)

जो दधि, शंख तथा हिम के समान आभा वाले छीर समुद्र से प्रादुर्भूत भगवान शंकर के सिरो भूषण तथा अमृत स्वरूप है उन चंद्रमा को मैं नमस्कार करता हूं।

धरणीगर्भ संभूतं विद्युत्कांतीं समप्रभं।
कुमारं शक्तिहस्तंच मंगलं प्रणमाम्यहं ।। (मंगळ)

जो पृथ्वी देवी से उद्भूत विद्युत की कांति के समान प्रभाव आ दें कुमारावस्था वाले तथा हाथ में  शक्ति लिए हुए हैं उन मंगल को मैं प्रमाण प्रणाम करता हूं।

प्रियंगुकलिका शामं रूपेणा प्रतिमं बुधं।
सौम्यं सौम्य गुणपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहं ।। (बुध)

जो प्रियंगु लता की कली के समान गहरे हरित वर्ण वाले अतुलनीय सौंदर्य वाले तथा सौम्य गुण से संपन्न है उन चंद्रमा के पुत्र बुद्ध को मैं प्रणाम करता हूं।

देवानांच ऋषिणांच गुरुंकांचन सन्निभं
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिं (गुरु)

जो देवताओं और ऋषियों के गुरु हैं स्वर्णिम आभा वाले हैं ज्ञान से संपन्न है तथा तीनों लोकों के स्वामी हैं उन बृहस्पति को मैं नमस्कार करता हूं।

हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूं।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहं।। (शुक्र)

जो हिमकुंद पुष्प तथा कमलनाल के तंतु के समान श्वेत आभा वाले, दैत्यों के परम गुरु, सभी शास्त्रों के उपदेष्टा तथा महर्षि ध्रुव के पुत्र हैं, उन शुक्र को मैं प्रणाम करता हूं।

नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजं।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्वरं।। (शनि)

जो नीले कज्जल के समान आभा वाले, सूर्य के पुत्र यम के जेष्ठ भ्राता तथा सूर्य पत्नी छाया तथा मार्तंड से उत्पन्न है उन शनिश्चर को मैं नमस्कार करता हूं।

अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्य विमर्दनं।
सिंहिका गर्भसंभूतं तं राहूं प्रणमाम्यहं।। (राहू)

जो आधे शरीर वाले हैं महान पराक्रम से संपन्न है, सूर्य तथा चंद्रमा को ग्रसने वाले हैं तथा सिंह ही का के गर्भ से उत्पन्न उन राहों को मैं प्रणाम करता हूं।

पलाशपुष्प संकाशं तारका ग्रह मस्तकं।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहं।। (केतु)

पलाश पुष्प के समान जिनकी आभा है जो रुद्र शोभा वाले और रुद्र के पुत्र हैं भयंकर हैं तारक आधी ग्रहों में प्रधान है उनके तो को मैं प्रणाम करता हूं।

फलश्रुति :
इति व्यासमुखोदगीतं य पठेत सुसमाहितं दिवा वा यदि वा रात्रौ।
विघ्नशांतिर्भविष्यति नर, नारी, नृपाणांच भवेत् दु:स्वप्न नाशनं
ऐश्वर्यंमतुलं तेषां आरोग्यं पुष्टिवर्धनं।।

भगवान वेद व्यास जी के मुख से प्रकट इस स्तुति को जो दिन में अथवा रात में एकाग्रचित होकर पाठ करता है उसके समस्त दिल शांत हो जाते हैं स्त्री पुरुष और राजाओं के दुख में दुख सपनों का नाश हो जाता है पाठ करने वाले को अतुलनीय ऐश्वर्या और आरोग्य प्राप्त होता है तथा उसके पुष्टि की वृद्धि होती है

इति श्री व्यासविरचित आदित्यादि नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णं

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

भगवान सूर्य की पूजा में प्रयोग होने वाले पुष्प

भगवान सूर्य की पूजा में प्रयोग होने वाले पुष्प

भविष्य पुराण में बलाया गया है कि भगवान सूर्य को यदि एक आक का फूल अर्पण कर दिया जाए तो सोने की दस अशरफिया चढ़ाने का फल मिल जाता है। फूलों का तारतम्य इस प्रकार बतलाया गया है-

हजार अड़हुल के फूल से बढ़कर एक कनेर का फूल होता है, हजार कनेर के फूलों से बढ़कर एक बिल्वपत्र, हजार बिल्वपत्रों से बढ़कर एक पद्म(  सफेद रंग से भिन्न रंग वाला), हजारों रंगीन पद्म पुष्पों से बढ़कर एक मौलसिरी, हजारों मौलसिरी  से बढ़कर एक कुश का फूल, हजार कुश के फूलों से बढ़कर एक शमी का फूल हजार शमी के फूलों से बढ़कर एक नीलकमल हजार नीलकमल हजारों मील और रक्त कमलों से बढ़कर केसर और लाल कनेर का फूल होता है।


यदि इनके फूल ना मिले तो बदले में पत्ते चढ़ाएं और पत्ते भी न मिले तो इनके फल चढ़ाएं। फूल की अपेक्षा माला में दुगना फल प्राप्त होता है रात में कदम के फूल और मुकुर को अर्पण करें और दिन में शेष समस्त फूल। बेला दिन में और रात में भी चढ़ाना चाहिए।

सूर्य भगवान पर चढ़ने योग्य कुछ फूल फूल इस प्रकार हैं। बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा,यावन्ति, कुब्जक,कर्णिकार, पीली कटसरैया, चंपा, रोलक, कुंद, काली कटसरैया (वाण), बर्बर मल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरुषा, कमल, मौलसिरी, अगस्त और पलाश के फूल तथा दुर्वा।


कुछ समकक्ष फूल
शमी का फूल और बड़ी कटेरी का फूल एक समान माने जाते हैं। करवीर की कोटि में चमेली, मौलश्री और पाटला आते हैं। श्वेत कमल और मंदार की श्रेणी एक है। इसी तरह नागकेसर, चंपा, और मुकुर एक समान माने जाते हैं।


विहित पत्र
बेल का पत्र, शमी का पत्र, भंगरैया की पत्ती, तमालपत्र, तुलसी पत्र, काली तुलसी के पत्ते, कमल के पत्ते भगवान सूर्य की पूजा में गृहीत हैं।


भगवान सूर्य के लिए निषिद्ध फूल।

गुंजा (कृष्णाला), धतूरा, कांची, अपराजिता ( गिरी कर्णिका), भटकटैया, तगर और अमड़ा, इन्हें भगवान सूर्य पर न चढ़ाएं। वीरमित्रोदय में इन्हें सूर्य पर चढ़ाने का निषेध किया गया है यथा।


फूलों के चयन की कसौटी

सभी फूलों का नाम गिनाना कठिन है। सब फूल सब जगह मिलते भी नहीं। अतः शास्त्र में योग्य फूलों के चुनाव के लिए हमें एक कसौटी दी है की जो फोन निषेद कोठी में नहीं हैं और रंग रूप तथा सुगंध से युक्त हैं उन सभी फूलों को भगवान को चढ़ाना चाहिए।

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

भगवान विष्णु की पूजा के लिए विहित और निषिद्ध पत्र पुष्प

भगवान विष्णु भगवान विष्णु को तुलसी बहुत ही प्रिय है। एक ओर रत्न मणि तथा स्वर्ण निर्मित बहुत से फूल चढ़ाया जाएं दूसरी ओर तुलसीदल चढ़ाया जाए तो भगवान तुलसीदल को ही पसंद करेंगे। सच पूछा जाए तो यह तुलसी दल की सोलहवीं कला की भी समता नहीं कर सकते। भगवान को कौस्तुभ(माणिक्य) भी उतना प्रिय नहीं है, जितना की तुलसी पत्र-मंजरी। काली तुलसी तो प्रिय है ही किंतु गौरी तुलसी तो और भी अधिक प्रिय है भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से कहा है कि यदि तुलसीदल न हो तो कनेर, बेला, चंपा, कमल और मणि आदि से निर्मित फूल भी मुझे नहीं सुहाते। तुलसी से पूजित शिवलिंग या विष्णु की प्रतिमा के दर्शन मात्र से ब्रम्ह हत्या का दोष भी दूर हो जाता है। एक ओर मालती अदि की ताज़ी मालाएं हो दूसरी और दूसरी और बासी तुलसी हो तो भी भगवान उसी बासी तुलसी को ही अपनाएंगे।



शास्त्र ने भगवान पर चढ़ने योग्य पत्रों का भी परस्पर तारतम्य बतलाकर तुलसी की सर्वातिशायिता बतलाई हैं जैसे कि चिड़चिड़े की पत्ती से भंगरैया की पत्ती अच्छी मानी गई है तथा उससे अच्छी खैर की और उससे भी अच्छी शमी की, शमी से दूर्वा, दूर्वा से अच्छा कुश, और उससे भी अच्छा दौनाकी, उससे भी अच्छा बेल की पत्ती और उससे भी अच्छा तुलसीदल होता है।

नरसिंह पुराण में फूलों का तारतम्य बतलाया गया है और कहां गया है की दस स्वर्ण सुमनों का दान करने से जो फल प्राप्त होता है वह एक गुमा के फूल चढ़ाने से प्राप्त हो जाता है। इसके बाद उन फूलों का नाम गिनाए गए हैं जिनमें पहले की अपेक्षा अगला उत्तरोत्तर हजार गुना अधिक फलप्रद होता है जैसे घुमा के फूल से हजार गुना बढ़कर एक खैर, हजारों खैर के फूल से बढ़कर एक शमी का फूल, हजारों शमी के फूल से बढ़कर एक मौलसिरी का फूल, हजारों मौलश्री के पुष्पों से बढ़कर एक नन्द्यावर्त आर्वत, हजारों ननन्द्यावर्त से बढ़कर एक कनेर, हजारों कनेर के फूलों से बढ़कर एक सफेद कनेर, हजारों सफेद कनेर से बढ़कर एक कुशा का फूल, हजारों कुशा के फूल से बढ़कर एक वनवेला, हजारों वनवेला के फूलों से एक चंपा, हजारों चंपाओं से बढ़कर एक अशोक, हजारों अशोक के पुष्पों से बढ़कर एक माधवी, हजारों वासंतीयों से बढ़कर एक गोजटा, हजारों गोजटाओं के फूल से बढ़कर एक मालती, हजारों मालती के फूलों से बढ़कर एक लाल त्रिसंधि(फगुनिया), हजारों लाल त्रिसंधि  के फूल से बढ़कर एक सफेद त्रिसंधि, हजारों सफेद त्रिसंधि के फूलों से बढ़कर एक कुंदन का फूल, हजारों कुंदन पुष्पों से बढ़कर एक कमल का फूल हजारों कमल पुष्पों से बढ़कर एक बेला और हजार बेला फूलों से बढ़कर एक चमेली का फूल होता है निम्नलिखित फूल भगवान को लक्ष्मी की तरह प्रिय हैं इस बात को उन्होंने स्वयं श्री मुख से कहा है--

मालती, मौलसिरी, अशोक, कलीनेवारी(शेफालिका), बसंतीनेवारी (नवमल्लिका), आम्रात(आमड़ा), तगर आस्फोत, बेला, मधुमल्लिका, जूही, अष्टपद, स्कंध, कदंब, मधुपिंगल, पाटला, चंपा, हृद्य, लवंग, अतिमुक्तक(माधवी), केवड़ा कुरब, बेल, सायं काल में फूलने वाला श्वेत कमल (कल्हार) और अडूसा

कमल का फूल तो भगवान को बहुत ही प्रिय है। कृष्णरहस्य में बतलाया गया है कि कमल का एक फूल चढ़ा देने से करोड़ों वर्ष के पापों का नाश हो जाता है। कमल के अनेक भेद हैं। उन भेदों के फल भी भिन्न-भिन्न हैं। बतलाया गया है कि सौ लाल कमल चढ़ाने का फल एक श्वेत कमल के चढ़ाने से मिल जाता है तथा लाखों श्वेत कमलों का फल एक नीलकमल से और हज़ारों नील कमलों का फल एक पद्म से प्राप्त हो जाता है यदि कोई भी किसी प्रकार का एक भी पद में चढ़ा दे तो उसके लिए विष्णुपुरी की प्राप्ति सुनिश्चित है।
बलि के द्वारा पूछे जाने पर भक्तराज प्रह्लाद ने भगवन विष्णु को प्रिय कुछ फूलों के नाम बतलाए हैं सुवर्णजाती, शतपुष्पा, चमेली, कुंद, कठचंपा, बाण, चंपा, अशोक, कनेर, जूही, परिभद्र, पाटला, मौलसिरी, अपराजिता, तिलक, अड़हुल, पीले रंग के समस्त फूल और तगर।

पुराणों ने कुछ नाम और गिनाए हैं जो नाम पहले आ गए हैं उनको छोड़कर शेष नाम इस प्रकार हैं अगस्त्य, आम की मंजरी, मालती, बेला, जूही, माधवी, अतिमुक्तक, यावंती, कुब्जई, करण्टक, पीली कटसरैया, धव(धातक), वाण(काली कटसरैया), बर्बरमल्लिका (बेला का भेद) और अडूसा।



विष्णुधर्मोत्तर में बतलाया गया है कि भगवान विष्णु के श्वेत पीले फूल की प्रियता प्रसिद्ध है, फिर भी लाल फूलों में दो पहरिया (बन्धुक), केसर, कुमकुम, अड़हुल के फूल उन्हें प्रिय हैं अतः इन्हें अर्पित करना चाहिए। लाल कनेर और बर्रे भी भगवान को प्रिय है। बर्रे का फूल पीला लाल होता है।

इसी तरह कुछ सफेद फूलों को वृक्षायुर्वेद लाल उगा देता है। लाल रंग होने मात्र से वे अप्रिय नहीं हो जाते, उन्हें भगवान को अर्पण करने चाहिए इस प्रकार कुछ सफेद फूलों के बीच भिन्न-भिन्न वर्ण होते हैं जैसे परिजात के बीच में लाल वर्ण का होता होता है। बीच में भिन्न वर्ण होने से भी उन्हें सफेद फूल माना जाना चाहिए और वह भगवान के अर्पण योग्य हैं।

विष्णुधर्मोत्तर के द्वारा प्रस्तुत नए नाम यह हैं --  तीसी, भूचंपक, पुरन्ध्रि, गोकर्ण और नागकर्ण।

अंत में विष्णुधर्मोत्तर ने पुष्पों के चयन के लिए एक उपाय बतलाया है कि जो फूल शास्त्रों से निषिद्ध ना हो और गंध तथा रूप से संयुक्त हो उन्हें विष्णु भगवान को अर्पण करना चाहिए।



विष्णु भगवान के लिए निषिद्ध पुष्प

विष्णु भगवान पर नीचे लिखे फूलों को चढ़ाना मना है --
आक, धतूरा, कांची, अपराजिता (गिरीकर्णिका), भटकटैया, कुरैया, सेमल, शिरीष, चिचिड़ा(कोशातकी), कैथ, लान्गुली, सहिजन, कचनार, बरगद, गूलर, पाकर, पीपल और आमड़ा(कपितन)।

घर पर रोपे गए कनेर और दुपहरिया के फूल का भी निषेध है

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

जानिए लक्ष्मीजी की कैसी फोटो है शुभ और कैसी है अशुभ

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, मित्रों आज हम बतायेगे की लक्ष्मी जी की कैसी चित्र या मूर्ति को घर में स्थापित करें और किस प्रकार की चित्रों का संस्थापन न करें, जो की घोर हानि का कारण बन सकता है।


लक्ष्मी जी की ऐसी चित्र या मूर्ति को घर में स्थापित न करें, जिसमे वे उल्लू की सवारी कर रहीं हों। इस प्रकार के चित्र और मूर्ति की पूजा करने से धन लाभ नहीं बल्कि नुकसान हो सकता है। धन मिल भी जाये तो वह निरर्थ ही खर्च हो सकता है

चंचल स्वभाव में लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है। उल्लू अँधेरे में रहने वाला जीव है, अँधेरा तम और असत का प्रतीक है, और उल्लू अज्ञान का, उल्लू पर सवार लक्ष्मी अत्यंत चंचल होती है। चंचल लक्ष्मी कही भी जादा देर नही टिकती है

लक्ष्मीजी की कैसी फोटो है शुभ और कैसी है अशुभ


ऐसी चित्र या मूर्ति को भी घर में स्थापित न करें जिसमे लक्ष्मी जी खड़ी हों, यह भी अस्थिर लक्ष्मी का प्रतीक है
लक्ष्मीजी की कैसी फोटो है शुभ और कैसी है अशुभ


लक्ष्मी की ऐसे फोटो की पूजा करनी चाहिए जिसमे वे भगवान विष्णु के साथ गरूण पर सावार हों। ऐसे चित्र की पूजा से शुभ धन की प्राप्ति होती है और यह धन घर में स्थिर भी रहता है

दिवाली पर गणेश और लक्ष्मी की पूजा का अप्रत्यक्ष आशय यह है की गणेश जी बुद्धि और ज्ञान के प्रतिक है और लक्ष्मी जी सौभाग्य और सम्पन्नता की प्रतीक है
लक्ष्मीजी की कैसी फोटो है शुभ और कैसी है अशुभ


अगर घर में लक्ष्मीं जी की चित्र लगनी हो तो ऐसी चित्र लगायें जिसमे वे बैठी हों। दीवाली पर जब लक्ष्मी जी के पूजन के लिए मूर्ती कर चयन करें तो, कमल आसन पर विराजमान लक्ष्मी की मूर्ती की स्थापना और पूजन करें

लक्ष्मीजी की कैसी फोटो है शुभ और कैसी है अशुभ


जिससे सुभ लक्ष्मी आपके धर में सदैव विराजमान रहे है 

बुधवार, 29 मार्च 2017

देवी भगवती को चढ़ने वाले पत्र पुष्पों

आज हम देवी भगवती को चढ़ने वाले पत्र पुष्पों के बारे में बताएगें। भगवान शंकर की पूजा में जो पत्र पुष्प विहित है, वे सभी भगवती गौरी को प्रिय है अपामार्ग उन्हें विशष प्रिय है। भगवान शंकर पर चढाने के लिए जिन फूलों का निषेध है तथा जिन फूलों का नाम नहीं लिया गया है वे भी भगवती  पर चढ़ाये जाते है। जितने लाल फूल है वे सभी भगवती को अभीष्ट है तथा समस्त सुगन्धित श्वेत फूल भी भगवती को विशेष प्रिय है।



बेला, चमेली, केसर, श्वेत और लाल फूल, श्वेत कमल, पलाश, तगर, अशोक, चंपा, मौल्शिरी, मंदार, कुंद लोध, कनेर, आक, शीशम, और अपराजिता( शंखपुष्पी)आदि के फूलों से देवी की भी पूजा की जाती है।

इन फूलों में आक और मंदार इन दोनों फूलों का निषेध भी मिलता है। अतः ये दोनों विहित भी है और प्रतिषिद्ध भी हैं। जब अन्य विहित फूल न मिलें तब इन दोनों का उपयोग करें। दुर्गा से भिन्न देवियों पर इन दोनों को न चढ़ाएं। किंतु दुर्गा जी पर चढ़ाया जा सकता है, क्यों कि पूजा में इन दोनों का विधान हैं।

शमी, अशोक, कर्णिकार( कनियार या अमलतास), गूमा, दोपहरिया, अगस्त्य, मदन, सिंदुवार, शल्लकी, माधवी आदि लताएँ, कुश की मंजरियाँ, बिल्वपत्र, केवड़ा, कदम्ब, भटकटैया, कमल, ये फूल भगवती को प्रिय है।

देवी के लिए विहीत-प्रतिषिद्ध

आक और मदार की तरह दूर्वा, तिलक, मालती, तुलसी भंगरैया और तमाल विहीत-प्रतिषिद्ध हैं अर्थात ये शास्त्र से विहित भी हैं और निषिद्ध भी हैं। विहित-प्रतिषिद्ध के सम्बन्ध में तत्व सागर संहिता का कथन है कि जब शास्त्रों से विहित फूल न मिल पायें तो विहीत-प्रतिषिद्ध फूलों से पूजा कर लेनी चाहियें



शनिवार, 4 मार्च 2017

भगवान शंकर की पूजा के लिए विहित और निषिद्ध पुष्प और पत्र

भगवान शिव को ही महादेव, भोलेनाथ, महेश, रुद्र, नीलकंठ शंकर


भगवान शिव को ही महादेव, भोलेनाथ, महेश, रुद्र, नीलकंठ और शंकर के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हीं का नाम भैरव है। वैदिक ऋचाओं में इन्हीं का नाम रुद्र है।  भगवान शिव को भोले भंडारी कहा जाता है। अगर कोई इन्हें सच्चे मन से एक लोटा जल ही चढ़ा दें तो भी वो प्रसन्न होकर उसे सब कुछ दे डालते हैं।
ऐसे परम दयालू देवादि-देव महादेव भगवान शिव पर फूल चढ़ाने का बहुत अधिक महत्व है।

तपःशील गुणोपेते विप्रे वेदस्य पारगे।
दत्त्वा सुवर्णस्य शतं तत्फलं कुसुमस्य च ।
(वीरमित्रोदय )

एक तप शील सर्व गुण संपन्न और वेदों में निष्णात किसी ब्राह्मण को सौ सुवर्ण दान करने पर जो फल प्राप्त होता है, वह भगवान शंकर पर सौ फूल चढ़ा देने से प्राप्त हो जाता है ।

कौन से पत्र-पुष्प शिव के लिए विहित है और कौन से निषिद्ध इसकी जानकारी अपेक्षित है, आज हम आपको इस बारे में बताएंगे।

भगवान विष्णु के लिए जो पत्र और पुष्प विहित है वे सब भगवान शंकर पर भी चढ़ाये जा सकते है केवल केतकी और केवड़े के पुष्प का निषेध है। -

विष्णोर्यानीह चोक्तानि पुष्पाणि च पत्रिकाः ।
केतकीपुष्पमेकं तु विना तान्यखिळान्यपि ।
शस्तान्येव सुरश्रेष्ठ शंकराराधनाय  हि ।।
(नारद )

शास्त्रों में भगवान शंकर की पूजा में मौलसिरी अर्थात बक/बकुल के पुष्प को अधिक महत्व दिया है -
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं शिवं स्पृष्ट्वॆदमुच्यते।
बकपुष्पेण चैकेन शैवमर्चनमुत्तमं।।
(वीरमित्रोदय )

आचारेन्दु में ‘बक’ का अर्थ ‘बकुल’ से किया गया है और ‘बकुल’ का अर्थ है ‘मौलसिरी’।  वीरमित्रोदय के उपरोक्त श्लोक में मौलसिरी का विधान है लेकिन अन्य कथन  ‘बकुलैर्नार्चयेद् दॆवं’ में निषेध किया गया है जो विरोधाभासी प्रतीत होता है। काल विशेष के द्वारा इस विरोधाभास का निवारण हो जाता है - ‘सायाह्ने बकुलं शुभम्’,  अर्थात मौलसिरी को दिन के समय चढ़ाने का निषेध है इसे सायं काल चढ़ाना शुभ  है।

भविष्य पुराण में भगवान शंकर पर चढ़ाने योग्य जिन फूलों को वर्णन किया गया है वे इस प्रकार है –
करवीर अर्थात कनेर, मौलसिरी(बक/बकुल), धतूरा, बड़ी कटेरी, कुरची या कुरैया,  मन्दार यानि आक, अपराजिता, शमी का फूल, शंखपुष्पी, चिचिड़ा(अपामार्ग), कमल,चमेली, नागचम्पा या नागकेसर, चम्पा, खस, तगर,  किंकिरात यानि कटसरैया, गूमा, शीशम, गूलर,  बेला, पलाश जिसे ढाँख के नाम से भी जाता है, बेलपत्र, कुङ्कुम अर्थात केसर, नील कमल और लाल कमल।

वीरमित्रोदय में बतलाया गया है की समस्त फूलों की जातियों में सबसे बढ़कर नील कमल होता है

जल और थल में उत्पन्न होने वाले जितने भी सुगन्धित फूल है वे सभी भगवान शंकर को प्रिय हैं

शास्त्रों में फूलों को चढ़ाने से मिलने वाले फल का तारतम्य भी बताया गया है। जो इस प्रकार है-

दस सुवर्ण माप के बराबर सुवर्ण दान करने का फल एक आक के पुष्प को चढ़ाने से मिल जाता है। एक हजार आक के फूलों को चढ़ाने का जो फल होता है मात्र एक कनेर का पुष्प चढ़ाने से मिल जाता है और एक हजार कनेर पुष्पों का फल एक बिल्व पत्र चढ़ाने से मिल जाता है। एक हजार बिल्व पत्रों का फल एक गूमा फूल चढ़ाने से मिल जाता है इसी तरह एक हजार गूमा से बढ़कर एक चिचिड़ा और हजार चिचिडों से बढ़कर एक कुश का फूल हजार कुश पुष्पों से बढ़कर एक शमी का पत्ता हजार शमी के पत्तों से बढ़ कर एक नील कमल, हजार नील कमल से बढ़कर एक धतूरा और हजार धतूरों से बढ़कर एक शमी का फूल होता है

शिवार्चन में निषिद्ध पत्र पुष्प 

भगवन शंकर पर जो फूल नहीं चढ़ाने चाहिए वे इस प्रकार है -

सारहीन पुष्प, कदम्ब, शिरीष, तिन्तिणी, बकुल (मौलसिरी), कोष्ठ, कैथ, गाजर, बहेड़ा, कपास, गंभारी, पत्रकंटक, सेमल, अनार, धव, केवड़ा और केतकी, बसंत ऋतु में खिलने वाला कंद, कुंद, जूही, मदन्ति, शिरीष सर्ज और दोपहरिया के फूल भगवान  शंकर पर नहीं चढ़ाने चाहिए।

केवडा की दो प्रजातियाँ होती है - सफेद और पीली। सफेद जाति को केवड़ा और पीली को केतकी कहते है।

मित्रों भोले शंकर की भक्ति और अनुकम्पा आप पर सदैव बनी रहे,

आशा है आप के लिए यह जानकारी उपयोगी सिद्ध होगी। हम शीघ्र उपस्थित होंगे नई जानकारी के साथ, इसी के साथ, जय शिव शम्भो

भगवान गणेश की पूजा में कौन से पुष्प और पत्र का प्रयोग करें?

ॐ श्री गणेशाय नमः
भगवान गणेश की पूजा में कौन से पुष्प और पत्र का प्रयोग करें? गणेशजी की उपासना से व्यक्ति का सुख-सौभाग्य बढ़ता है और सभी तरह की रुकावटें दूर होती हैं।

हिन्दू संस्कृति में, भगवान श्री गणेश जी को, प्रथम पूज्य का स्थान दिया गया है। प्रत्येक शुभ कार्य में सबसे पहले, भगवान गणेश की ही पूजा की जाती है। जब किसी लोक संस्कार या शुभ  कार्य के लिए 'श्री गणेश' का नाम शुभआरम्भ का पर्याय सूचक है।

देवता भी अपने कार्यों को विघ्न रहित पूरा करने के लिए गणेश जी की अर्चना सबसे पहले करते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि देवगणों ने स्वयं उनकी अग्र पूजा का विधान बनाया है।

सनातन शास्त्रों में भगवान गणेश जी को, विघ्नहर्ता अर्थात सभी तरह की परेशानियों को खत्म करने वाला बताया गया है। पुराणों में गणेशजी की उपासना शनि सहित सारे ग्रह दोषों को दूर करने वाली भी बताई गई हैं। हर बुधवार के शुभ दिन गणेशजी की उपासना से व्यक्ति का सुख-सौभाग्य बढ़ता है और सभी तरह की रुकावटें दूर होती हैं।

गणपति पूजन से आपके हर कार्य सफलता पूर्वक हो इसलिए हम गणपति को चढने वाले पत्र पुष्प के बारे में जानकारी देना चाहते है।


हरिताः श्वेतवर्णा वा पञ्चत्रि पत्रसंयुताः ।
दूर्वाङ्कुुरा मया दत्ता एकविंशतिसम्मिताः।।
(गणेशपुराण )


गणेश जी को दूब अर्थात दूर्वा अधिक प्रिय है, इसलिए गणेश जी को सफ़ेद या हरी दूब अवश्य चढ़ानी चाहिए।दूर्वा को चुनते समय एक बात अवश्य ध्यान में रखें की इसकी फुनगी में तीन या पाँच पत्तियां होनी चाहिए।



एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखे की कभी भी गणेश जी पर तुलसी न चढ़ाये। पद्म पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है – “न तुलस्या गनाधिपम” अर्थात तुलसी पत्र से गणेश जी की पूजा न की जाये

गणेश जी की तुलसी पत्र से पूजा न करें। गणेश जी को तुलसी छोड़ कर सभी पत्र पुष्प प्रिय है


कार्तिक महात्म्य में इस बात का वर्णन किया गया है की “गणेशं तुलसी पत्रैः दुर्गां नैव तु दुर्वया” अर्थात गणेश जी की तुलसी पत्र से और माँ दुर्गा की दूर्वा से पूजा न करें। आचारभूषण इस विषय को और विस्तार देता है।

तुलसीं वर्जयित्वा सर्वाण्यपि पत्रपुष्पाणि गणपतिप्रियाणि 

अर्थात गणेश जी को तुलसी छोड़ कर सभी पत्र पुष्प प्रिय है इसलिए सभी अनिषिद्ध पत्र पुष्प गणपति पर चढाये जाते है।


गणपति को नैवेद्य में लड्डू अधिक प्रिय है, आचारेन्दु ग्रन्थ  इस बात पर इस प्रकार प्रकाश डालता है –
“गणेशो लड्डुक प्रियः”
इस लिए गणेश जी को लड्डू और मोदक के भोग लगाना बिलकुल न भूलें।
गणपति को नैवेद्य में लड्डू अधिक प्रिय है,