मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

हनुमान चालीसा - तुलसीदास कृत-श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारी, बनरऊँ रघुवर विमल जसु जो दायकु फल चारी


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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारी ।।
बनरऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारी ।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार ।।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहुकलेस विकार ।।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।  जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा।  अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ।।
महावीर विक्रम बजरंगी।  कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुबेसा।  कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे।  काँधे मूँज जनेऊ साजे ।।
संकर सुवन केसरीनंदन।  तेज प्रतापमहा जग बन्दन ।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।  राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।  राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा।  विकट रूप धरि लंक जरावा ।।
भीम रूप धरि असुर सँहारे।  रामचंद्र के काज सँवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये।  श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई।  तुम मम प्रिय भरतही सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावें।  अस कहीश्रीपति कठ लगावें ।।
सनकादिक ब्रह्मादी मुनीसा।  नारद सारद सहित अहीसा ।।
जम कुबेर दिकपाल जहाँ ते।  कवि कोविद कही सके कहाँ ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा।  राममिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीसन माना।  लंकेस्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस जोजन पर भानु।  लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहि।  जलधि लांघी गये अचरज नाही ।।
दर्गम काज जगत के जेते।  सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे।  होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहें तुम्हारी सरना।  तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपे।  तीनो लोक हाँक ते काँपे ।।
भूत पिशाच निकट नहि आवे।  महावीर जब नाम नाम सुनावे ।।
नासे रोग हरि सब पीरा।  जपत निरंतरहनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुडावे।  मन क्रम वचन ध्यान जो लावे ।।
सब पर राम तपस्वी राजा।  तिन के काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावे।  सोई अमित जीवन फल पावे ।।
चारों जुग प्रताप तुम्हारा।  हें परसिद्ध जगत उजियारा ।।
साधु संत के तुम रखवारे।  असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अस्ट सिद्धि नों निधि के दाता।  असबर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।  सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावे।  जनम जनमके दुःख बिसरावे ।।
अन्त काल रघुवर पुर जाई।  जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई।  हनुमत सेई सर्ब सुख करई ।।
संकट कटे मिटे सब पीरा।  जो सुमिरेहनुमत बलबीरा ।।
जे जे जे हनुमान गोसाई।  कृपा कहु गुरुदेव की नाई ।।
जो सत बार पाठ कर कोई।  छुटेहि बंदि महा सुख होई ।।
जो यह पड़े हनुमान चालीसा।  होई सिद्धि साखी गोरिसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजे नाथ ह्रदय महँ डेरा ।।

पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप।।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।
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