महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यंत पुण्यदायी महत्ता है।
मान्यता है कि इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। सावन में तो इसकी छटा देखते ही बनती है। कांवड़ियों के जयकारों और मंदिरों के घंटो से ऐसा प्रतित होता है कि जैसे हम किसी शिवलोक में आ गए हैं।
बम बम भोले के जयकारे
इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् 1107 से 1728 ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग 4500 वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन 1690 ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और 29 नवंबर 1728 को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।
इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन 1731 से 1801 तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं - पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।
सावन में लगता है कावड़ियों का मेला
महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा-सा जलस्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी। सन 1968 के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया था। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया था।
लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा 1980 के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया। हाल ही में इसके 198 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई है। अब मंदिर में दान के लिए इंटरनेट सुविधा भी चालू की गई है।कहते हैं भोलेनाथ सब की सुनते हैं, इसलिए महाकालेश्वर मंदिर से कोई बी खाली हाथ नहीं लौटता।
मान्यता है कि इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। सावन में तो इसकी छटा देखते ही बनती है। कांवड़ियों के जयकारों और मंदिरों के घंटो से ऐसा प्रतित होता है कि जैसे हम किसी शिवलोक में आ गए हैं।
बम बम भोले के जयकारे
इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् 1107 से 1728 ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग 4500 वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन 1690 ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और 29 नवंबर 1728 को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।
इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन 1731 से 1801 तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं - पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।
सावन में लगता है कावड़ियों का मेला
महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा-सा जलस्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी। सन 1968 के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया था। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया था।
लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा 1980 के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया। हाल ही में इसके 198 शिखरों पर 16 किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई है। अब मंदिर में दान के लिए इंटरनेट सुविधा भी चालू की गई है।कहते हैं भोलेनाथ सब की सुनते हैं, इसलिए महाकालेश्वर मंदिर से कोई बी खाली हाथ नहीं लौटता।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें